छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से मेरा परिचय 1974 के छात्र आन्दोलन के दौरान हुआ। उसके पहले मैं सर्वोदय की तरुण शांति सेना का सदस्य था। लेकिन वाहिनी का सक्रिय सदस्य मैं आपातकाल के बाद ही बना। फिर 1980 मे तीसोत्तर होने तक मैं जिला स्तरीय कार्यकर्ता ही था। इसीलिए वाहिनी के प्रांतीय और राष्ट्रीय गतिविधियों की पूरी जानकारी मुझे नहीं है। सच कहा जाये तो तीसोत्तर होने के बाद जब अनिल प्रकाश जी के गंगा मुक्ति आन्दोलन से जुड़ा तब ही मैं सही ढंग से सक्रिय हो पाया।
करीब 48 वर्षों बाद बोधगया मे हो रहा वाहिनी के साथियों का आगामी सम्मेलन यह बताता है कि इससे जुड़े रहे लोगों मे एक गहरी एकजुटता रही है। आज तीसोत्तर साथियों से दुराव और वाहिनी के विभाजन को भूला जा चुका है। सच कहा जाये तो बहुत कम साथी तीसोत्तर बचे हैं और यह संख्या घटती ही जा रही है। यह इस धारा के लिए सबसे बड़े संकट में से एक है। यदि ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ को फिर से मजबूत नहीं किया गया तो कुछ वर्षों मे यह धारा समाप्त हो जायेगी।
संघर्ष वाहिनी या वहिनी धारा का सिर्फ बना रहना पर्याप्त नहीं है। मेरी जानकारी के अनुसार जयप्रकाश जी इसमें एक लाख युवाओं को जोड़ना चाहते थे, जो संभव नहीं हुआ। यह संख्या कुछ हजारों तक ही सीमित रही। इसका पहला कारण तो वाहिनी का सत्ता की दौड़ से अलग रहना रहा, जो आम युवाओं को आकर्षित नहीं करता था। दूसरा वाहिनी मे सर्वोदय और समाजवादियों से अलग पहचान बनाने की इच्छा ने सहयोगियों की संख्या को घटा दिया। संस्था बना लेने वाले साथियों से भी दुराव रखा गया। इससे साधनों के घोर अभाव मे वाहिनी विकसित नहीं हो पायी। इतनी कठिनाइयों मे भी बोधगया और दूसरे आन्दोलनों की सफलता कम महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इन सफलताओं के कारण वाहिनी मे एक सवर्ण भाव विकसित हुआ जो इसे आम युवाओं को जोड़ने से रोकता रहा। मुझे नहीं याद है कि कभी वाहिनी का सदस्यता अभियान चलाया गया।
संख्या कम रहने के कारण वाहिनी मे राष्ट्रीय आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना करने की क्षमता उत्पन्न नहीं हो पाई। मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और कुशिक्षा जैसे मामले, जो छात्र आन्दोलन के मुख्य मुद्दे थे, उपेक्षित रह गये। यहां तक कि जब मोरारजी देसाई ने जयप्रकाश जी का अपमान किया तो वाहिनी की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। इसके बावजूद वाहिनी के साथियों ने बोधगया आन्दोलन, गंगा मुक्ति आन्दोलन तथा अन्य आन्दोलनों मे महत्वपूर्ण सफलता पाई। यही नहीं देश मे चल रहे विभिन्न आन्दोलनों का हिस्सा बन उसे सफलता तक ले गये। महाराष्ट्र का किसान आन्दोलन हो या उत्तरी भारत का किसान आन्दोलन हमारे साथियों ने बिना किसी लालच के योगदान किया। बोफोर्स आन्दोलन के वक्त जनमोर्चा को खड़ा करने मे वाहिनी के साथियों ने बड़ी भूमिका निभाई। वाहिनी के साथियों ने अन्ना के आन्दोलन मे भी प्रमुख भूमिका निभाई। यह अलग बात है कि समाजवादियों के असहयोग के कारण अन्ना आन्दोलन का पूरा लाभ भाजपा ने उठा लिया। देश मे पर्यावरण आन्दोलन को खड़ा करने मे भी वाहिनी के साथियों की बड़ी भूमिका रही है। वनाधिकार, ग्राम स्वराज और लोकतंत्र की रक्षा के आन्दोलन मे वाहिनी के साथी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।
लेकिन आज देश गंभीर संकट मे पड़ गया है। साम्प्रदायिक ताकतों ने पूंजीपतियों से गठजोड़ करके सत्ता पर नियंत्रण कर लिया है। विगत कुछ वर्षों में चुनाव प्रक्रिया इतनी मंहगी हो गई है कि ईमानदार व्यक्ति और ईमानदार समूह चुनाव नहीं लड़ सकता है। मुखिया के चुनाव मे भी करोड़ तक खर्च कर दिये जाते हैं। पिछले दिनों एक सरपंच के पद की नीलामी मे जीतने वाले ने चालीस लाख खर्च कर दिया। जो इतना खर्च कर के चुनाव जीतेगा वह भ्रष्टाचार करके दुगुना तो वसूलेगा ही, जिससे अगला चुनाव भी लड़ सके। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में उम्मीदवारों के अलावा पार्टियों द्वारा अलग से भारी खर्च किया जाता है।
यह पैसा कहां से आता है। अब जनता चंदा देती नहीं लेती है। नगद, शराब, उपहार आदि के बदले वोट खरीदा जाता है। खरीदने का पैसा पूंजीपतियों से आता है। इस प्रकार लोकतंत्र को पूंजीपतियों ने खरीद लिया है। इसीलिए सरकार किसान विरोधी, मजदूर विरोधी, गरीब विरोधी नीतियां लागू करने को बाध्य हैं। छोटे दल भी चुनाव खर्च के दबाव में सीट बेचने के लिए बाध्य होते हैं। ईमानदार पर गरीब कार्यकर्ता को दल में महत्व नहीं मिलता है। इस भ्रष्टाचार की गंगोत्री को ही जयप्रकाश जी नष्ट करना चाहते थे।
अब भाजपा सरकार ने जो इलेक्शन बांड जारी किया है उससे हमारी आजादी भी खतरे मे पड़ गई है। इन बांड से राजनैतिक दलों को मिलने वाला हजारों करोड़ कौन दे रहा है इसका पता नहीं चलता। ज्यादा संभावना है कि विदेशी कंपनियां इलेक्शन बांड के माध्यम से भाजपा को मदद कर रही हैं। ऐसे में देश की नीतियों पर विदेशी पूंजीपतियों का नियंत्रण हो जाना स्वाभाविक है। वैसे भी वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाएं भारत सरकार की नीतियों को प्रभावित कर रही हैं। भारतीय उद्योगपति भी विदेशी पूंजीपतियों के साथ हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण ग्लासगो के विश्व पर्यावरण सम्मेलन मे देखने को आया। सम्मेलन के पहले भारत के पूंजीपतियों की संस्था ने सरकार से मांग की थी कि भारत 2070 के पहले ‘नेट जीरो’ का वादा नहीं करे। ग्लासगो मे अधिकांश देशों ने 2050 तक इसे लागू करने का वादा कर लिया। पर मोदीजी ने 2070 तक इसे लागू करने से मना कर दिया। यानि कि भारत 2070 तक प्रदूषण ज्यादा फैलायेगा और कम सोखेगा।
सरकार जनविरोधी नीतियों को लागू करने से अलोकप्रिय न हो जाये इसके लिए साम्प्रदायिकता का जाल फैला रही है। इसमें मीडिया भी काफी मदद कर रहा है। क्योंकि अधिकाँश मीडिया को बड़े पूंजीपतियों ने खरीद लिया है। सोशल मीडिया पर भी सत्ता का नियंत्रण है। फेसबुक आदि सरकार द्वारा संचालित अफवाहों पर रोक नहीं लगाते हैं।भाजपा ने डोकलाम आदि को लेकर फैले अफवाहों के बल पर पिछला लोकसभा चुनाव जीता था। यदि भाजपा फिर 2024 का चुनाव जीत लेती है तो संभव है कि देश का संविधान बदल जाये और लोकतंत्र समाप्त हो जाये। इसीलिए हमलोगों के पास मात्र दो साल का समय है। यदि हम इस बीच वाहिनी को विस्तार दे सके तथा समान विचार धारा वाले लोगों को एकजुट कर सके तो 1974 की तरह इस सत्ता को चुनौती दे सके तभी हमारी कोई प्रासंगिकता बचेगी। अन्यथा मित्र मिलन मात्र उत्सव बनकर रह जायेगा।