भाजपा की पूरी राजनीति मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ घृणा और वैमनष्य पर कंेद्रित है. वे सतत यह दुष्प्रचार करते रहते हैं कि इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों की आबादी देश में तेजी से बढ़ रही है और वह दिन दूर नहीं कि उनकी आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो जायेगी और हिंदू अपने घर में अल्पसंख्यक बन कर रह जायेंगे. मुसलमानों के बारे में उनका प्रचार यह रहता है कि वे ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और ईसाईयों के बारे में यह कि वे प्रलोभन देकर दलितों और आदिवासियों का धर्मांतरण कराते हैं. आदिवासीबहुल राज्यों में उनकी राजनीति का मूलाधार ईसाईयों के खिलाफ यह दुष्प्रचार ही है. भाजपा शासित राज्यों में धर्मांतरण के खिलाफ कठोर कानून भी बनाये गये हैं. हांलांकि उस कानून के तहत कभी एफआईआर आदि की बातें अपवाद स्वरूप ही सामने आते हैं. जबकि आदिवासियों के हिंदूकरण की बातें उनके लिए अपराध नहीं, क्योंकि आदिवासी तो उनकी नजर में हिंदू ही हैं.
शायद इसलिए जनगणना में जबकि अन्य धर्मों का स्पष्ट उल्लेख है, वही आदिवासी का कोई अलग कालम नहीं. यह सही है कि आदिवासी प्रकृति पूजक हैं, लेकिन अंग्रेजों के जमाने में और उसके बाद भी कुछ दिनों तक जनगणना के कालम में आदिवासी शब्द का उल्लेख रहता था, लेकिन आजादी के बाद वह गायब है. आदिवासियों की गणना अनुसूचित जनजाति के रूप में की जाती है जो धर्म नहीं. जनगणना में हिंदू, इस्लाम, ईसाई, सिख व बौद्ध धर्म का तो कालम है, लेकिन आदिवासियों के धर्म का कोई उल्लेख नहीं. उनकी गणना संभवतः अन्य धर्म/ कोई धर्म नही ंके काॅलम में की जाती है. पिछले कुछ वर्षों से आदिवासी समुदाय अपने अलग धार्मिक कोड के लिए संघर्ष तो कर रहा है, लेकिन अभी तक उस मांग की तरफ भाजपा सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है. सामान्यतः उनकी गणना हिंदू के रूप में ही हो रही है.
लेकिन हमारे लिए सवाल यह है कि क्या वास्तव में आदिवासियों की संख्या देश में बढ़ रही है? उपलब्ध सरकारी आंकड़ों से ही हम भाजपा के इस भ्रामक प्रचार का समाधान करें. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में ईसाईयों की आबादी कुल आबादी का 2.3 फीसदी है. इसे इत्तफाक भी कह सकते हैं कि आजादी के बाद 1951 की जनगणना में भी ईसाई कुल आबादी के 2.3 फीसदी ही थे. 1961 की जनगणना में उनकी आबादी का प्रतिशत 2.44, 1971 की जनगणना में 2.60 और 1981 मंे फिर 2.44 फीसदी हो गया. कुल मिला कर हम कह सकते हैं कि भारत में ईसाईयों की आबादी के अनुपात में रत्ती भर बदलाव नहीं हुआ है और भाजपा के धर्मांतरण का प्रचार और अल्पसंख्यकों की बढ़ती आबादी का खौफ दिखाना महज राजनीतिक प्रोपेगेंडा है. इन आंकड़ों को कोई भी अपनी नंगी आंखों से देख सकता है. लेकिन तथाकथित प्रगतिशील समझे जाने वाले अनेक लोग भी इस भ्रम के शिकार हैं.
सवाल यह भी उठता है कि यदि कुछ खास इलाकों में प्रलोभन देकर आदिवासियों के धर्मांतरण की घटनाएं अपवाद स्वरूप सामने आती भी हैं, तो हिंदू धर्मावलंबी और मठाधीश क्यों नहीं आदिवासियों को प्रलोभन देकर हिंदू बनाते हैं. ईसाई मिशनरियां सदियों से गरीब, पिछड़े इलाकों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं. गरीबों के लिए अस्पताल चलाते हैं. निराश्रित महिलाओं के लिए, लावारिश नवजात शिशुओं के लालन-पालन के लिए केंद्र आदि चलाते हैं. हिंदू मठाधीश गरीबों के लिए क्या करते हैं? केवल धार्मिक भावना की घुट्टी पिला कर राजनीति करने के सिवा? और यदि वे आदिवासियों को हिंदू धर्म का हिस्सा मानते हैं तो वे उन्हें वर्णाश्रम धर्म की किस श्रेणी में शुमार करने वाले हैं, क्योंकि मनु वादी व्यवस्था में तो ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, वैश्य और शूद्र हैं, आदिवासियों की तो कोई श्रेणी नहीं दिखायी देती? वैसे भी हिंदू धर्म में धर्मांतरण का अब कोई प्रावधान नहीं है. जो जन्मना हिंदू है, उसके अलावा कोई हिंदू बनना चाहे, तो वे उसे वर्णवादी व्यवस्था में कहां फिट करने वाले हैं?
विडंबना यह कि आदिवासी समाज का भी एक हिस्सा भाजपा और संघ के प्रभाव में है और मानने लगा है कि मिशनरियां आदिवासियों का धर्मांतरण करा रही हैं और उनकी सबसे बड़ी शत्रु हैं.