शिक्षित होते ही सभी थोड़े ‘ब्राह्मण’ बन जाते हैं. इस अर्थ में कि वे शारीरिक श्रम करने से घृणा करने लगते हैं और शारीरिक श्रम करके जीवन यापन करने वालों को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं. जो जन्मना उच्च जाति में जन्म लेते हैं, वे तो पहले से शारीरिक श्रम करने वालों से खुद को श्रेष्ठ समझते ही हैं, पिछड़ी, निम्न जातियों से शिक्षित होने वाले भी श्रेष्ठता बोध से भर जाते हैं. इसलिए उन्हें यह सवाल कभी नहीं सालता कि आफिस में काम करने वाले बाबू या डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक का वेतन लाख डेढ़ लाख रुपये और नरेगा मजदूरों की अधिकतम कमाई प्रति माह छह हजार रुपये क्यों हैं. उन्हें लगता है कि शारीरिक श्रम और गैर शारीरिक या मानसिक श्रम में यह अंतर स्वाभाविक ही है.

श्रम के प्रति यह उपेक्षा का भाव मनुवादी व्यवस्था में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. उच्च जातियां भरसक किसी तरह का शारीरिक श्रम नहीं करते. हर तरह का शारीरिक श्रम करने वाले शूद्रों की कोटि में रखे गये हैं. खेत, खलिहानों में काम करने वाले, मेहनत मजूरी करने वाले, बर्तन बनाने वाले, कपड़ा बुनने वाले, सफाई कर्मी, छोटे मोटे कारीगर, सभी वैसे लोग जो हाथ से काम करते हैं, मिट्टी में हाथ लगाते हैं, निम्न जाति में आते हैं. और इसी वजह से अपने देश में श्रम की प्रतिष्ठा नहीं. उन्हें न्यूनतम वेतन मिलता है.

विडंबना यह कि जन्मना उंची जाति के लोग तो इस अहंकार से भरे ही होते हैं, निम्न जाति के लोग भी शिक्षा प्राप्त करते ही सबसे पहले वे शारीरिक श्रम वाले कामों से घृणा करने लगते हैं. किसान का बेटा पढ़ लिख कर किसानी छोड़ देता है और अन्य अपना परंपरागत पेशा. सभी को सरकारी, अर्द्ध सरकारी, यानि संगठित क्षेत्र में कोई रोजगार, नौकरी चाहिए जिसमें मासिक वेतन व अन्य वे सुविधायें- मासिक वेतन, बोनस, इनसंेटिव, ग्रैच्यूटी, पेंशन आदि हो. और इसमें कोई हर्ज भी नहीं. हर्ज सिर्फ इतना है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करीबन 80 फीसदी श्रम शक्ति को आज ये सुविधायें प्राप्त नहीं. और उन्हें यह प्राप्त हो, इसके लिए कोई सचेष्ट भी नहीं. संगठित क्षेत्र में काम करने वालों की तो इसमें कोई रुचि नहीं. उनका हित तो इस बात में हैं कि समाज का एक बड़ा हिस्सा मुफलिसी और कठोर आर्थिक संकट में जीवन व्यतीत करता रहे ताकि उनकी व्यक्तिगत सेवा के लिए सस्ता श्रमिक हर वक्त मौजूद रहे.

इस विरोधाभास को हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि विदेशों में, जहां श्रमिको का पारिश्रमिक बेहतर होता है, वहां काम करने वाले प्रवासी भारतीय घर में चाकर, शाफर, माली नहीं रख सकते, लेकिन वही जब अपने देश में आते हैं तो उन्हें घरेलु काम के लिए चाकर, माली, ड्राईवर, यहां तक की गाड़ी हर सुबह साफ करने के लिए सेवक की दरकार हो जाती है और यह सब वे सस्ते श्रम और अपनी उंची कमाई के कारण प्राप्त भी कर लेते हैं.

इसलिए आज की तारीख में संगठित क्षेत्र में रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है. किसी अधिकारी की न सही, चपरासी की ही सही, लेकिन सरकारी क्षेत्र में. ऐसे युवा, जिन्होंने जीवन के बीस बाईस वर्ष सिर्फ कैरियर बनाने में लगाया, अदद नौकरी का सपना देखते बड़ा हुआ, नौकरी नहीं मिलने की स्थिति तक ‘बेरोजगार’ रहता है. तरह-तरह के फ्रस्टेशन का शिकार रहता है. वह एक अदद नौकरी के सिवा कुछ करने के लायक ही नहीं रह जाता है. जबकि उसके समानांतर अशिक्षित करोड़ों युवा खट कमा कर अपने जीवन यापन में लगा रहता है.