झारखंड में प्रवेश के अपने शुरुआती दिनों में टुंडी क्षेत्र में माओवादियों का टकराव झामुमो के लोगों से था और अनगिनत हत्यायें उन्होंने की. वे ख्यातिप्राप्त नेता या विधायक नहीं थे, इसलिए उनकी चर्चा अब नहीं होती. लेकिन कम से कम अब तक उन्होंने तीन लोकप्रिय झारखंडी नेताओं की हत्या की है. झामुमो नेता सुनील महतो की, माले नेता कामरेड महेंद्र सिंह की और विधायक रमेश सिंह मुंडा की. तीनों के अलग-अलग कारण बताये गये. सुनील महतो की हत्या इसलिए हुई क्योंकि वे माओवादियों का विरोध करते थे. ग्राम सुरक्षा समिति का नेतृत्व करते थे और माओवादियों का आरोप है कि उनकी वजह से अनेक माओवादी मारे गये. महेंद्र सिंह अपने क्षेत्र के एक बड़े और लोकप्रिय नेता थे और माओवादियों की स्पष्ट धारणा शुरु से रही है कि ग्रामीण इलाकों, खास कर उनके प्रभाव क्षेत्र में किसी अन्य की नेतागिरी नहीं चलने दी जायेगी. और रमेश सिंह मुंडा की हत्या में तो उनकी भूमिका सुपाड़ी कीलर की रही बतायी जाती है. कहा जाता है कि रमेश सिंह मुंडा ने जिस नेता को लगातार दो बार विधान सभा चुनाव में पराजित किया, उसी ने उनकी हत्या की सुपाड़ी माओवादियों को दी और माओवादियों ने यह काम बखूबी किया.
यहां इस बात की चर्चा इसलिए की जा रही है कि 4 मार्च को सुनील महतो की हत्या हुई थी, जिसे शहादत मानते हुए उनके समर्थकों ने उस दिन ‘हूल जोहार’ किया. लेकिन इस बात की जानकारी नहीं दी कि उनकी हत्या किन लोगों ने की थी और उसका सबब क्या था. प्रसंग यह भी है कि आज भी बुद्धिजीवी तबका और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय लोगों की एक जमात माओवादियों का समर्थक है. वह उनकी हिंसा की राजनीति को खुल कर समर्थन करने का साहस तो नहीं जुटा पाता, लेकिन पुलिसिया कार्रवाई की बर्बरता के बहाने उनको नैतिक समर्थन देता है और इसे मानवाधिकार हनन का मसला बनाता है. हालांकि जीवन के अधिकार का हनन तो माओवादी भी करते हैं. लेकिन उनकी हिंसा को ‘क्रांति’ के लिए की गयी हिंसा और जबावी हिंसा को ‘प्रतिक्रांति’ के लिए हिंसा बताया जाता है. हालांकि क्रांति या प्रतिक्राति के लिए हुई हिंसा में भी शिकार मनुष्य होता है और गोली लगने से खून बहता है और विस्फोट होने से शरीर के चीथड़े होते हैं. विकल्प तो खुला जनवादी व शांतिमय संघर्ष ही है. और यह सिलसिला अनवरत जारी रहता है.
अब आईये मूल सवाल पर. माओवादी जनप्रिय झारखंडी नेताओं की हत्या क्यों करते हैं? दरअसल, माओवादियों की स्पष्ट मान्यता है कि सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है. और उनके इस धारणा से जो भी असहमत हैं, वे उनके दुश्मन है. और असहमत लोगों की हत्या वे तथाकथित क्रांति के लिए जरूरी समझते हैं. अपने प्रभाव वाले इलाके में वे किसी अन्य का राजनीतिक हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर सकते और चूंकि ग्रामीण क्षत्रों में जमीन से जुड़े नेता उनकी राह में आते हैं, इसलिए उन्हें मार डालने में जरा भी परहेज नहीं करते. सुनील महतो, कामरेड महेंद्र सिंह और रमेश सिंह मुंडा चूंकि जमीन से जुड़े नेता थे और अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में माओवादियों का विरोध करते थे, इसलिए उन्हें रास्ते से हटा दिया गया. और आगे भी संसदीय राजनीति में सक्रिय जो नेता ग्रामीण इलाकों में उनका विरोध करेंगे, उनकी यही गति होगी. वैसे, सामान्य लोगों को भी पुलिस का मुखबिर बता कर या जनता का शत्रु बता कर मारने में उन्हें गुरेज नहीं.