हमने महिला दिवस मना लिया. कुछ संकल्प भी लिये. पर हम पाते हैं कि हमारे सामने पुराने मुद्दे बने हुए हैं. यह तथ्य है कि स्त्रियां हमेशा युद्ध, दंगा या किसी तरह की अशांति के खिलाफ रही हैं. स्त्रियां हिंसा की वारदातों की ऐसी शिकार हैं जो आजीवन इस दर्द को झेलती हैं. कभी खुद सीधे बर्बरता की शिकार होती हैं तो कभी पिता, पति या बेटा खोकर. इसी कारण हम औरतें हमेशा ऐसा वातावरण चाहती हैं, जिसमें हम चैन से रह सकें. अपने बच्चों को बिना डरे स्कूल भेज सकें. परिवार के अन्य सदस्य और खुद भी निश्चिंत होकर काम पर जा सकें. यानी स्त्रियां हिंसा मुक्त समाज, भय मुक्त वातावरण चाहती हैं. पर क्या शांति सिर्फ स्त्रियों की कामना है? क्या किसी तरह की तरक्की, विकास और सांस्कृतिक उठान अशांत वातावरण में संभव है? समाज भी ऐसी शांति और सौहार्दपूर्ण समरसता के लिए लालायित रहता है. क्योंकि तभी तो उसका चतुर्दिक विकास का संभव हो पाता है. हम सभी ऐसा ही चाहते हैं. युद्ध और हिंसा के साये में जीना किसी के लिए भी बहुत कठिन होता है. बच्चे स्कूल में हों और शहर में हिंसा और उपद्रव शुरू हो जाये. आतंकवादी स्कूल की बस पर हमला कर दें. बम के गोलों से बचने के लिए लोगों को तहखानों में रहना पड़े, नन्हें बच्चों के हाथ बंदूक थमा दी जाये, ऐसा दूसरे देशों के विषय में सुनने में आता है. मगर खुद क्या कोई ऐसा जीवन चाह सकता है?
मगर आज हमारे अपने देश में जो स्थिति बनती दिख रही है, नफरत और टकराव की जो राजनीति चल रही है, वह कहां पहुंचेगी, यह सोच कर भी दहशत होती है.
समय के साथ इंसान और इंसान के बीच कहां तो बहनापा और भाईचारा बढ़ता,दूरियां मिटतीं और हम तरक्की की ओर बढ़तेय और कहां बस घृणा और नफरत की फसल तैयार की जा रही है. कहीं भी दंगा हो, आम नागरिक का सहज जीवन स्थगित हो जाता है. बच्चे स्कूल नहीं जा सकते, खेलने नहीं जा सकते. डर के साये में कैद जीवन. ऐसे माहौल में ही समाज का नेतृत्व गुंडों के हाथों चला जाता है. वे अपने समुदायों के रहनुमा बन जाते हैं. असमाजिक तत्वों को और क्या चाहिए? तभी तो समाज में उनकी पूछ होगी. हैसियत बढ़ेगी. डर के साये में हम उनके रहमो करम पर होंगे.
आज पूरे देश में जिस तरह धार्मिक सद्भाव को बिगाड़ा जा रहा है, किसी बहाने टकराव और हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है, ऐसा लगता है कि पूरे देश को ही दंगाग्रस्त क्षेत्र बनाने का प्रयास चल रहा है. इसलिए कि कुछ लोगों को तात्कालिक लाभ के लिए नफरत और हिंसा का ही कारोबार कारगर लगता है.
आज जो वोटर भाजपा के साथ हैं, उनमें से अधिकतर तमाम जरूरी मुद्दों को परे ढकेल सिर्फ और सिर्फ हिन्दू राष्ट्र के नाम पर साथ हैं. लगातार बढ़ती मंहगाई, तेल और गैस की उछाल मारती कीमतें, स्त्रियों के उत्पीड़न की रोज सामने आ रही घटनाएं- कुछ भी मायने नहीं रखते.
बिहार चुनाव में अंतिम चरण में सारे मुद्दे खत्म हो गये थे और भाजपा अपने पसंदीदा जगह पहुंच गयी. नफरत की राजनीति और समाज को बांट कर वोटों का ध्रुवीकरण का रास्ता. मगर इस तरह बंटे समाज में औरतें कैसे जीयेंगीं?
अब बंगाल में चुनाव सामने है. वहां दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा की बहस चल रही है. देश को किसानों के आंदोलन से मतलब नहीं, कारपोरेट राज्य की चिंता नहीं. देश और समाज का सांप्रदायिक आधार पर बंटवारा ही लक्ष्य है. और इस बंटे समाज में सबसे असुरक्षित औरतें हैं. पर औरतों की चिंता किसे है? उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रशासन, जहाँ भाजपा की‘आदर्श’ सरकार है, ने हाथरस कांड में क्या किया था, हम देख चुके हैं. बिहार में मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में संरक्षक द्वारा यौन उत्पीड़न हुआ. दोषी जेल में है, मगर नीतीश कुमार को उनकी पत्नी को टिकट देने में शर्म नहीं आयी! कोई हिचक नहीं हुई!
घटनाएं हर राज्य में होती हैं, मगर आज अनेक राज्य सरकारों का रवैया संवेदनहीन और शर्मनाक नजरआ रहा है. इसलिए कि सत्ता पाने और उस पर जमे रहने के लिए समाज का एक बंटाहोना जरूरी है और इसके लिए समाज में स्त्री की इज्जत से ज्यादा महत्वपूर्ण है उन्माद और असहिष्णुता को बनायेरखना. और ‘राम राज्य’ की बात करनेवाले इसी पथ पर चल रहे हैं-बेहिचक, निर्विघ्न.
चाहे जैसी भी स्थिति हो, हमें साथ ही रहना है. दूसरे हमें बांटने की कोशिश करेंगे, पर हमें उनके बहकावे में क्यों आना? जो अपने पास छुरियां रख कर चलते हैं और उनके इस्तेमाल का बहाना ढूंढते हैं, उनके सिवा कौन घृणा और आतंकवाद के साये में रहना चाहेगा? एक तो जीवन वैसे ही तनाव भरा होता जा रहा है, उस पर यह माहौल! हमारे परिवार, आस पड़ोस के, मुहल्ले के, गांव के लोगों की मुस्कुराहटें व हंसी खुशी ही इस तनाव से बाहर आकर जीने का हौसला देती हैं.
इंसान और इंसान के बीच विभिन्न कारणों से पहले ही दूरियां बनी हुई हैं. विज्ञान, बुद्धि और विवेक से इसे निरंतर कम करते जाना है. ऐसे में कुछ लोग इसे और बढ़ाने में लगे हैं. इससे जीवन और कठिन बनता जा रहा है. इस स्थिति को बदलना ही होगा और यह दायित्व हम सब का है.