नेतरहाट फायरिंग रेंज की समय सीमा 11 मई 2022 को समाप्त हो जायेगी. राज्य सरकार को इसकी अवधि विस्तार नहीं करनी चाहिए और इस अनुबंध को रद्द कर देना चाहिए. पिछले लगभग तीन दशकों से चले आंदोलन की वजह से यह फायरिंग रेंज समझौता रद्दप्राय ही है. पूर्व की झारखंड राज्य सरकारों और उनके नेताओं ने समय समय पर इस योजना के रद्द होने की भी बात कही है, लेकिन उसका विधिवत अधिसूचना जारी नहीं की है. इससे यह आशंका बना रहती है कि आंदोलन के कमजोर या शिथिल पड़ते ही कही सेना की तरफ से इस दिशा में काम न शुरु हो जाये. सरकार को इस उहापोह की स्थिति समाप्त कर देनी चाहिए.

मालूम हो कि इस परियोजना के लिए तीन दशक पहले 245 गांव के 1471 वर्गकिमी जमीन को अधिसूचित किया गया था जिससे हजारो आदिवासी विस्थापित होंगे. इस योजना के शुरुआती दिनों में ग्रामीणों को तरह-तरह की यातनाएं झेलनी पड़ी. उसके बाद आंदोलन के लिए कटिबद्ध हुए लोग और इस काम को रांेकना पड़ा. और आंदोलन में जनता की व्यापक भागिदारी और उसकी आक्रमकता को देखते हुए इस समझौते को स्थगित करने की घोषणा भी समय-समय पर की गयी.

इस बीच तरह-तरह की और बातें भी चर्चा में रहीं. कभी कहा गया इस इलाके में ही वन्य जीवों के निहितार्थ कई योजनाएं शुरु होने वाली हैं. कभी एलिफेंट कारिडोर, कभी टाईगर प्रोजेक्ट तो कभी वूल्फ सेंचुरी बनाने की बात कही जाती है. यानि, आदिवासियों को छोड़ सभी जीवों की चिंता देश के प्रभु वर्ग को है.

यह अजीब विडंबना है कि जो भाजपा और संघ परिवार कश्मीरी पंडितो के विस्थापन पर बनी फिल्म के बहाने पूरे देश में सांप्रदायिक सोहार्द बिगाड़ने की कोशिशों में लगी है, वे ही लोग आदिवासियों के विस्थापन के प्रति तनिक भी संवेदनशील नहीं. सभी विकास के वर्तमान माॅडल के लिए आदिवासियों को रुकावट मानते हैं. क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल के सामने वर्तमान विकास के माॅडल का कोई विकल्प नहीं. सभी को लगता है कि कारपोरेट के द्वारा पूंजी निवेश और आदिवासीबहुल इलाकों में बचे रहे गये प्राकृतिक संसाधनों व सस्ते श्रम का दोहन ही विकास का एकमात्र विकल्प है और इसके लिए आदिवासियों को कथित विकास का खाद बन जाना चाहिए.

लेकिन महाजनी शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध चले आंदोलन की कोख से निकली झामुमो और हेमंत सरकार से तो यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह आदिवासियों की पीड़ा समझेगी और एकसी किसी भी योजना व समझौते को मंजूर नहीं करेगी जिससे आदिवासियों को विस्थापित होने, अपने अधिवास से उजड़ने के लिए बाध्य होना पड़े.