‘कशमीर फाईल्स’ के बहाने धर्मोन्माद फैलाने और कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचारों के लिए देश के पूरे मुसलिम समुदाय को दोषी बताने और उनसे बदला लेने के लिए उकसाने के डरा देने वाले प्रयासों के बीच मुझे कोई पांच साल पहले का यह पोस्ट याद आया. आखिरकार मिल भी गया. बेशक यह गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा है, लेकिन मुर्दों की गवाही मुर्दे ही तो देंगे, क्या हर्ज है! वैसे इसे गड़े मुर्दे के बजाय आईने की तरह देखेंय और यदि थोड़ी शर्म बची हो और हम शर्मिंदा हो सकें तो ‘देश पर ऐसे दाग फिर नहीं लगने देंगे’ के संकल्प के साथ ऐसे दागदार अतीत को देखना सार्थक भी हो सकता है.

अब वह पोस्टः हाशिमपुरा याद है

‘‘ संक्षेप में 22-23 मई 1987 की आधी रात, उत्तर प्रदेश की पुलिस (पीएसी) ने दंगाग्रस्त मेरठ जिले के हाशिमपुरा गांव से 42 मुसलमानों को पकड़ा और दूर ले जाकर उनकी हत्या कर दी. 27 साल बाद आये फैसले में किसी को दोषी नहीं पाया गया! बहुतों को लग सकता है कि यह गड़े मुर्दे उखाड़ना है तो आज 23 मई, ‘17 ही ‘हिंदुस्तान’ में छपे उस समय गाजियाबाद के पुलिस अधीक्षक रहे विभूति नारायण राय के लेख ‘फिर से पढ़ें हाशिमपुरा के पन्ने’ का यह अंश देख लें- ‘हाशिमपुरा पर किताब लिखने के दौरान मुझे अक्सर यह सलाह दी गयी कि अब हमें गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए. बार बार याद दिलाने से पुराने जख्म भरेंगे नहीं, ताजा बने रहेंगे. मैं चाहता भी नहीं कि जख्म भरें. भारतीय राज्य की आंखों में उंगलियां डाल-डाल कर याद दिलाने की जरूरत है कि उसने वह सब नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था या वह सब किया, जिसे करने से भारतीय संविधान रोकता है. यह याद रखने की जरूरत है कि हाशिमपुरा हमारे लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के लिए एक बड़ा खतरा है. यदि हम हाशिमपुरा भूल गये, तो भविष्य में और भी हाशिमपुरा होंगे…’

उल्लेखनीय है कि हाशिमपुरा तो मेरठ में है, पर उक्त हत्याएं गाजियाबाद जिले में की गयीं, जहां श्री राय पुलिस अधीक्षक थे.

हां, आप चाहे तो खुश हो सकते हैं कि उस समय उत्तर प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस की सरकारें थीं. लेकिन तब यह भी मानना होगा कि यह हमारे प्रशासन तंत्र का मूल चरित्र है. यह भी कि खास कर दंगों के दौरान हमारी पुलिस ‘हिंदू पुलिस’ बन जाती है. 27 साल बाद उक्त फैसला सुनाते हुए दिल्ली के सेशन जज ने कहा कि उनके मन में कोई शंका नहीं कि 42 मुसलमानों को पीएसी ने उठायाय और यह भी साबित हो गया है कि उन्हें दो नहरों के किनारे उतार कर पीएसी कर्मियों द्वारा ही मार डाला गया. पर वे अभियुक्त की हैसियत से खड़े पीएसी कर्मियों में से किसी को सजा नहीं दे सकते, क्योंकि उनमें से किसी के विरुद्ध आरोप सिद्ध नहीं हो सका! पर श्री राय का मानना है कि इस कांड की पुनः नये सिरे से जांच होनी चाहिए. कुशल विवेचकों की टीम द्वारा समयबद्ध और उच्च न्यायलय के निकट पर्यवेक्षण में फिर से तफ्शीश की जाये, तो अभियुक्तों को दंडित करने का कोई न कोई रास्ता निकल सकता है. क्या आप मानते हैं कि ऐसा किया जाना चाहिए?’’

उपरोक्त पोस्ट मैंने 23 मई, 2017 को लिखी थी.

कोई संवेदनशील फिल्मकार हो तो उसे ऐसे दर्जनों ‘फाईल्स’ मिल जायेंगे, जिन पर धूल-गर्द जमी हुई है. 1989 के भागलपुर दंगे का तो मैं खुद गवाह हूं। हालांकि मैं वहां दंगा लगभग शांत होने के बाद पहुंचा था। फिर भी जो देखा-सुना, वह भयावह था। जिस लौगांय में करीब एक सौ शवों (मुर्दों) को खेतों में दफना, नहीं, सचमुच गाड़ कर वहां फसल लगा दी गयी थी, उस गांव में उस कांड के बाद बाहर से पहुंचने वाला मैं पहला पत्रकार, बल्कि पहला आदमी था। अफसोस कि मेरा अखबार इसका क्रेडिट नहीं ले सका. उस रात लौगांय से लौट कर अपने अखबार को सूचित करने के बाद जिन अन्य पत्रकारों को बताया, उनके अखबारों में यह प्रकरण प्रमुखता से छपा।

कमाल कि उन दंगों में हताहतों (दोनों तरफ के) के बारे में आज भी वहां का आम आदमी (हिंदू) अफवाहों को ही सच मानता है या सच को स्वीकार करने से बचता है। और वहां भी पुलिस सामान्यतया ‘हिंदू पुलिस’ की भूमिका में ही थी।