बैंगलोरु के कई सिनेमा घरों के मालिकों को कर्नाटक सरकार ने ‘जेम्स’ नामक फिल्म को हटा कर कश्मीर फाईल्स लगाने का आदेश दिया है. इसका विरोध हो रहा है, क्योंकि कन्नड़ भाषियों के लिए जेम्स महत्वपूर्ण फिलम है जिसमें उनका प्रिय अभिनेता पुनीत राजकुमार नायक है. पुनीत राजकुमार का निधन हाल ही में 45 वर्ष की उम्र हो गया और जेम्स उनकी अंतिम फिल्म थी. इस फिल्म में दर्शकों से सिनेमा हाल भरे रहते थे. ऐसे में इस फिल्म को हटा कर कश्मीर फाईल्स लगाने का आदेश सिनेमा के निर्माता, सिनेमाघर के मालिक तथा कन्नड़ भाषियों को अच्छा नहीं लग रहा है.

कश्मीर फाईल्स को इतना महत्व इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि इसको प्रधानमंत्री ने प्रोमोट किया. मोदीजी ने अपने कैबिनेट के मंत्रियों के साथ इस फिलम को देखा और सराहा. उन्होंने कहा कि इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों के पलायन का सच्चा चित्रण हुआ है. इस फिल्म को दिल्ली में टैक्स फ्री कर दिया गया.

अब बीजेपी शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियों ने भी इस फिल्म को हाथोंहाथ लिया. अपने मंत्रियों के साथ इस फिल्म को देखा. केंद्र सरकार की तर्ज पर ही इसके प्रदर्शन को अपने राज्य में टैक्स फ्री कर दिया ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे देखें. कर्नाटक में भी बीजेपी शासन है. यहां भी इस फिलम को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की चेष्टा की जा रही है जिसकी आलोचना विरोधी पार्टियां कर रही हैं. उनका कहना है कि इस तरह कन्नड़ लोगों की भावनाओं को आहत कर कश्मीर फाईल्स को सिनेमा घरों में लगाना बीजेपी के हिंदू घ्रुवीकरण प्रोग्राम का ही एक हिस्सा है.

कर्नाटक में अगले वर्ष चुनाव होने वाले हैं. अभी से बीजेपी की चुनावी रणनीति तैयार है. इसका प्रथम चरण है मुस्लिम विरोधी भावनाओं को जगा कर हिंदुओं को एकत्र करना. इस नीति को सफल करने में ‘कश्मीर फाईल्स’ सहायक होगी. वैसे तो इसकी शुरुआत कालेज में हिजाब पहनने पर रोक लगा कर कर दी गयी है. हिजाब पर रोक लगने से मुस्लिम समुदाय में उत्तेजना है और हिंदुवादी संगठनों को मनमानी करने का मौका भी मिल गया है. इसी क्रम में अब हिंदू मंदिरों के पास पूजा सामग्री बेचने वाले मुस्लिम दुकानदारों को हटाने की मुहिम चल रही है. यद्यपि यह मांग 2002 में ही उठी थी, जब यहां बीजेपी का शासन नहीं था. लेकिन अब अति हिंदू चिंतन वाले लोग इनके विरुद्ध मुहिम में जुट गये हैं. इस तरह बीजेपी का राजनीतिक हित सध रहा है.

कोई भी फिल्म विचार अभिव्यक्ति का माध्यम हो सकता है, लेकिन निर्देशक की पूरी ईमानदारी के बावजूद वह किसी घटना की पूरी सच्चाई को उद्घाटित नहीं कर सकती. यह सापेक्षिक सत्य हो सकता है. कुछ समाचारों के अनुसार खुद कश्मीरी पंडितों ने स्वीकार किया था कि उनके कठिन समय में कश्मीर में उनके पड़ोसी मुसलमान परिवारों ने उनकी बहुत मदद की है. कुछ हिंदू परिवारों के मकान, जमीन को सुरक्षित रख कर उनकी वापसी पर उनको सौंप दिया था. इस बात को तो स्वीकार करना होगा कि कश्मीर में हिंदू मुस्लिम सदियों से साथ रहते आये हैं. आतंकवाद से वहां के मुस्लिम भी पीड़ित रहे हैं और अभी भी हैं.

यहां एक बात और गौर करने की है कि भारत जैसे विशाल देश में जाति के नाम पर उत्पीड़न होता है. उनको अपनी जगह से उजाड़ा जाता है तो सरकार को दर्द नहीं होता है. विकास योजनाओं के कारण जंगलों के कटने से आदिवासी अपने गांव से विस्थापित हो रहे हैं. इन आदिवासियों दलितों और विस्थापितों को लेकर भी कई बेहतरीन फिल्में बनी हैं, लेकिन सरकारें उससे द्रवित नहीं होती. केवल हिंदुओं के विस्थापन से परेशान हो जाती हैं. ये घड़ियाली आंसू हैं और भाजपा की मुस्लिम विरोधी राजनीति को सूट करती हैं.