सरहुल भी कोई पर्व होता है, यह पहली बार अस्सी के दशक में रांची आने पर जाना. सरहुल के जुलूस की सबसे बड़ी विशेषता यह नजर आयी कि उनमें औरतों और मर्दों की लगभग सामान भागीदारी होती थी, होती है. दूसरी यह कि उस भीड़ में घिर जाने पर भी डर नहीं लगता था, हालांकि शुरुआत में डर लगा था. आपके साथ कोई महिला है, लड़की है, उसके साथ अभद्रता हो सकती है, इसकी जरा भी आशंका नहीं होती थी. बावजूद इसके कि भीड़ में अनेक या बहुतेरे लोगों (औरतों सहित) के ‘मताये’ हुए यानी नशे में होने का संदेह होता था. वे बस मस्ती में होते थे. झूमते और नाचते हुए.

सरहुल और करमा सहित आदिवासियों का कोई सनाजिक या पारिवारिक समारोह भी देख लें तो सपष्ट हो जायेगा कि इस समाज ने कुछ आदिम परम्पराओं को बचा कर, जीवित रखा है. इसलिए यह अब भी एक जीवंत समाज है, जहां परस्पर सहयोग और स्त्री-पुरुष के बीच बहुत हद तक समानता की परंपरा बची हुई है.

इस तरह के किसी भी पर्व के साथ कोई लोककथा जुडी रहती है. कुछ अंधविश्वास भी. फिर भी ऐसे त्योहारों से समाज जीवन की ऊर्जा पाता है. वैसे भी हर समाज उत्सव प्रेमी होता ही है. आधुनिक विकास की आपाधापी में मनुष्य अपनी जड़ों से कटता जा रहा है. लेकिन ऐसे त्यौहार उनको प्रकृति, अपनी जमीन और जड़ों से जोड़े रखने का अवसर देते हैं.

हम जैसों (‘बाहरी’ लोगों) के लिए तो लड़का लड़की का एक साथ मिल कर नाचते देखना भी एक अनुभव था. फिर धीर-े धीरे जाना कि आदिवासी समुदायों में अब भी सामूहिकता बची हुई है, साथ ही स्त्री और पुरुष के बीच रिश्तों की सहजता भी.
आदिवासी समुदायों के अलावा सिख समाज में भी स्त्री-पुरुष मिल कर नाचते गाते हैं. इस मिल कर नाचने में ही जीवंतता है. वर्ना अन्य समाजों में तो नाचने के लिए लड़की को भाड़े पर बुलाया जाता है. एक नाचती है, और भीड़ उसका मजा लेती है. फूहड़ भद्दे कमेन्ट भी करती है. यह स्त्री -पुरुष के बीच जबरन दीवार खड़ी करने से पैदा होनेवाली कुंठा का लक्षण और नतीजा है. ,

हालांकि शहरी समाज में अब महिलाएं भी शादी जैसे मौकों पर नाचने लगी हैं. पहले तो बारात में भी उनके जाने पर मनाही थी. गांवों में आज भी है.

सरहुल और रामनवमी - ये दोनों दो समुदायों, भिन्न आस्था से जुड़े लोगों के बड़े त्यौहार हैं. लगभग एक ही साथ होते हैं. इनमे तुलना गैरजरूरी हते हुए भी, जिसने भी दोनों का अनुभव लिया हो, वह इनमें अंतर को महसूस किये बिना नहीं रह सकता.

मैं हालिया झारखंडी हूं. बचपन से रामनवमी के जुलूस और उनमें निकलने वाली झांकियों को देखता रहा हूं. आस्था के आलावा भरपूर जोश और युद्ध की तैयारी जैसा माहौल. बाद में तो हर वर्ष रामनवमी एक अनिष्ट की आशंका के बीच ही मनाई जाते थी. रांची, हजारीबाग और जमशेदपुर आदि शहरों में रामनवमी के मौके पर अनेक बार साम्प्रदायिक झडप और दंगे के हालत भी बने रहे. फिर अयोध्या प्रकरण शुरू होने पर तो ‘जय श्रीराम’ के नारे या जयघोष का अर्थ और प्रभाव ही बदल गया. यह कोई धार्मिक या आस्था से जुड़ा नारे नहीं, एक ‘युद्ध घोष’ बन गया.

बेतिया (चंपारण, बिहार) में लंबे समय तक रहा, जहां रामनवमी की बड़ी धूम रहती थी. वहां उस समय (साठ और सत्तर के दशक में) भी उसमें ‘संघी’ छौंक रहता ही था. फिर भी वह आम हिंदू समाज के सबसे बड़े आराध्य राम से जुड़ा, उनके जन्म पर होनेवाला त्यौहार था, है, तो उसमें आस्था का तत्व प्रमुख था. लेकिन संघ और जनसंघ (भाजपा का पूर्व रूप) का प्रभाव वाला क्षेत्र होने के कारण जगह-जगह कोई उन्मादी पकिस्तान और मुसलमान विरोधी नारे लगता भी दिख जाता था.

तो, कुछ ही दिनों के अंतराल में सरहुल और रामनवमी का जुलूस रांची की सड़कों पर उतरेगा और इस फर्क को आप अपनी आंखों से देख सकेंगे.