एक तरफ विस्थापन और दूसरी तरफ बहिरागतों की बढ़ती आबादी की वजह से झारखंड में आदिवासी आबादी का अनुपात पिछले सौ वर्षों में पचास फीसदी से घट कर 26 फीसदी के करीब पहुंच गया है. बावजूद इसके झारखंड आदिवासीबहुल राज्य है और यहां का मूल संघर्ष हमेशा से जल, जंगल, जमीन को बचाने पर केंद्रित रहा है. पिछले दो वर्षों का इतिहास उलट कर देख जाईये, हर संघर्ष जल, जंगल, जमीन को बचाने का संघर्ष, अपने देश में अपना राज का संघर्ष रहा है. क्योंकि आदिवासी इस बात को समझते हैं कि जीवन के संसाधनों पर यदि जनता का अधिकार नहीं रहा तो सरकारी नजराने, राहत की तमाम अन्य कोशिशें काम नहीं आयेंगी.
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से एक सोची समझी साजिश के तहत झारखंड में ऐसे आंदोलनों की शुरुआत की गयी है जिससे एक तरफ तो यह बुनियादी संघर्ष कमजोर हो और झारखंडी एकता विखंडित हो, ताकि संघी राजनीति को फायदा हो. और वह साजिश सफल रही है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि भाजपा देखते देखते सत्ता पर काबिज हो गयी. किन आंदोलनों की बदौलत भाजपा इस मुकाम तक पहुंची, वह मैं नहीं सामने रखूंगा. इसे देखना आपका काम है.
बड़ी मुश्किल से पिछले चुनाव में भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. लेकिन एक बार फिर साजिशों का पिटारा भाजपा के रणनीतिकारों ने खोल दिया है और उसे विविध रूपों में संचालित किया जा रहा है. इस तथ्य को आप इस रूप में समझ सकते हैं कि झारखंड में रोजगार की संभावना निरंतर कम होती जा रही है. एक जमाने में सरकारी नौकरी के अलावा सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों में रोजगार के अनेक अवसर थे. बोकारो स्टील कारखाना में पचास हजार से ज्यादा नियमित कर्मचारी काम करते थे. टिस्को में बीस हजार से ज्यादा. उसी तरह एचएससीएल, बीआरएल, एचईसी आदि कंपनियों में बड़ी संख्या में रोजगार का सृजिन होता था.
लेकिन देखते देखते पब्लिक सेक्टर तबाह कर दिया गया. निजी क्षेत्र में भी आधुनिकीकरण के बाद रोजगार नहीं रहा. और अब तो पूरी तरह निजीकरण का दौर है. कारपोरेट का जमाना है. जमीन लूट तो हो रही है, रोजगार का सृजिन कहीं होता नहीं दिख रहा. और यह चालू विकास माॅडल का अवश्यमभावी परिणाम है. लेकिन इस विकास माॅडल के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन अब नहीं दिखायी देता. बस सरकारी नौकरियों के नाम पर जो थोड़े बहुत नौकरयां दिखती हैं, उसके लिए छीना झपटी मची है. और उसी के इर्द गिर्द लुभावने नारों के साथ तरह तरह के आंदोलन सोसल मीडिया और सोसल मीडिया के बाहर चलते रहते हैं जिसका फायदा अंततोगत्वा भाजपा उठाती रही है.
ताजा दौर के आंदोलन और उसके बाद तीसरे मोर्चे का राजनीति उदय इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं.
यह सवाल उठाया जा सकता है कि हमारे जैसे सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग किस तरह के आंदोलनों से जुड़ें. मेरा नजरिया साफ है. देश में दो तरह के आंदोलन चलते हैं. एक यथास्थितिवाद का पोषण करते हैं और कुछ इस व्यवस्था को कड़ी चुनौती देते हैं. हमारे सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह व्यवस्था - सामाजिक आर्थिक ढ़ाचा- बहुसंख्यक जनता के श्रम के शोषण और उत्पीड़न पर टिकी है. इस व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करने से ही बहुसंख्यक आबादी को न्याय मिलेगा. विकास का यह माॅडल खत्म नहीं होगा, तब तक लोगों को काम नहीं मिलेगा. उल्टे जीवन के संसाधन निरंतर छिनते जायेंगे और मुट्ठी भर लोगों के हाथ में केंद्रित होते जायेंगे. इसलिए हमें उन्हीं आंदोलनों में शिरकत करनी चाहिए जो इस सड़ी गली व्यवस्था के मूल पर प्रहार करे. वैसे आंदोलनों में तो कत्तई नहीं जो उपर से लुभावना मगर भीतर से संधी राजनीति के काम आने वाला हो.