पांचवी-छठी अनुसूची, आदिवासी क्षेत्रों के लिए बनाये गये विशेष भू कानूनों, पेसा कानून आदि को बचाने के लिए हम करते क्या हैं? छाती पीटने और सरकार को कोसने के सिवा? क्या हमने कभी इस बात पर गौर किया है कि खुद आदिवासी समाज इन्हें बचाने के लिए कितना तत्पर रह गया है? इसके लिए किसी बड़े आंदोलन की जरूरत नहीं, यदि वे पेसा कानून का आदर करते और उसकी महत्ता समझते तो अपने इलाके में होने वाले पंचायत चुनावों का वहिष्कार करते. जल, जंगल, जमीन पर जनाधिकार को महत्व देते न कि दलगत आधार पर विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ खेमे बाजी करते नजर आते.
हमें आज की वस्तु स्थिति को समझना होगा. विकिंगसन रूल के जमाने से आज का जमाना कितना बदल चुका है. पहले जल, जंगल, जमीन जिस गांव की चैहद्दी में होता था, उस पर गांव का अधिकार होता था. याद रखने की जरूरत है- किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं. बहुचर्चित ख्ुटखट्टीदारी व्यवस्था का मूलाधार यही था. इसकी वजह से अंग्रेजों को आदिवासी इलाकों से राजस्व वसूली में बहुत दिक्कत होती, क्यों कि जमीन सामूहिक संपत्ति थी तो उसे बचाने के लिए एकताबद्ध हो कर लोग संधर्ष भी करते थे.
इसलिए उन्होंने गांव की जमीन का सर्वे और बंदोबस्ती करना शुरु किया. और एक बार यह काम हो जाने के बाद उन्होंने राजस्व वसूली में जिसने अड़चन डाली, उसकी जमीन की नीलामी शुरु की. कोर्ट, कचहरी के जोर पर जमींदारी व्यवस्था जबरन लादी. विद्रोहों का सिलसिला शुरु हुआ. ‘हूल’ फिर ‘संथाल विद्रोह’. और इलाकेां में भिन्न नामों से. लेकिन अंग्रेजों के पास बारुद था और हिंदू राजे रजवाड़ों का साथ. आदिवासी लड़े, मारे गये, फिर बड़े पैमाने पर पलायन. अंग्रेजों को लगा कि यदि आदिवासी उजड़ ही गये तो कठोर चट्टानी जमीनों पर खेती कौन करेगा? इसलिए कुछ विशेष भूमि कानून अस्तित्व में आये जिसे हम छोटानागपुर, संथाल परगना टिनेंसी एक्ट के रूप में देखते हैं.
लेकिन जमीन के सामूहिक स्वामित्व के खत्में की शुरुआत तो हो ही गयी थी. उसी को मोदी और आगे बढ़ा रहे हैं. भूमि के पंजीकरण के नाम पर. उसके डिजीटलीकरण के नाम पर. अब गांव में ड्रोन से सर्वे न हो, जमीन का नये सिरे से सरकारी पंजीकरण न हो, ग्राम सभा के जिम्मे यह काम हो आदि. . आदि बातें तो चलेगी, लेकिन जमीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व की जगह सामूहिक स्वामित्व का दौर खत्म हो चुका है. जब जमीन का मालिक व्यक्ति होगा तो उसे जमीन को बेचने का हक भी होग, भले ही कानून में इसकी मनाही हो. अच्छा मान लीजिये कि किसी आदिवासी को किसी आदिवासी ग्राहक से जमीन की कीमत एक लाख रुपये डिसमिल मिले और गैर आदिवासी से तीन लाख रुपये डिसमिल, तो क्या वह मानेगा? या कानून इसमें कोई बाधा खड़ी कर पायेगा? मान कर चलिए कि इस तरह के कानून कागजी बन कर रह जायेंगे या देर सबेर इतिहास की वस्तु बन जायेंगे.