आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे जीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है. उपभोक्तावादी संस्कृति भीषण गरीबी के बीच लग्जरी वस्तुओं की होड़ को बढ़ाता है. विलासिता की बस्तुओं का आकर्षण और इन्हें पाने की लालच ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है और आदिवासी समाज के सदियों से चले आ रहे सादगी व श्रम के मेल से बने जीवन को, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और संस्कृति को भी नुकसान पहुँचा रही है.
विकास के क्रम में आर्थिक स्थिति में सुधार, उसके अनुकूल जीवन शैली में परिवर्तन, जीवन की आवश्यकताएं भी बदलेगी.. इसमें कुछ गलत नहीं, लेकिन आर्थिक आधार में सुधार न हो और जीवन की प्राथमिकताएं बदल जाये बाजार के दबाव में, तो यह गलत होगा. चारों तरफ बस्तियों में नये घर बन रहे हैं, धीरे-धीरे जमीन बेच कर लोग गाड़ियां खरीद रहे हैं. मोबाइल खरीद रहे हैं, लेकिन अफसोस! उतनी चिंता बच्चों को शिक्षित करने के लिए नहीं और अगर पढ़ा भी रहे हैं, तो बच्चों को पढ़ाई में क्या जरूरत है, ओर क्या नहीं, इसकी कोई परवाह नहीं. यह सब उपभोक्तावादी संस्कृति और बाजार का ही दबाव है. अधिक से अधिक उपभोक्ता वस्तुएं खरीद कर अपनी हैसियत का प्रदर्शन करने लगते हैं. इतना ही नहीं वे महँगी से महँगी वस्तुएं खरीद कर दूसरों को नीचा दिखाना चाहते हैं.
दूसरी और उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को भी प्रभावित कर रहे हैं. उनमें आडंबर बढ़ रहा है. रीति-रिवाजों का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है. विवाह आदि के समय पैसे की बर्बादी उसी तरह करते हैं जैसे बाहरी समाज के लोग. खाना-पीना, बैंड बाजे, टेंट आदि पर अब लाखों रुपये फूंक दिये जाते हैं. पहले लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में एक दूसरे के यहां पहुँच कर दूसरों की खुशी या गमी में शामिल हुआ करते थे, पर आज वे धन्यवाद, शुभकामना संदेश, जन्मदिन की बधाई आदि फोन या एसएमएस. के माध्यम से दे देते हैं. किसी के पास आने-जाने का समय ही नहीं रह गया है.
हमें इस बात को समझना होगा कि हमारे समाज के पास पूंजी के रूप में अपना श्रम है या पूर्वजों से मिली जमीन. श्रम की कीमत बहुत कम मिलती और अब तक हमारा पालन पोषण करने वाली जमीन को बेच कर हम बहुत थो़ड़ा पैसा प्राप्त करते हैं और उसका बड़ा हिस्सा हम ऐसी चीजों पर बर्बाद कर रहे हैं जो जीवन की प्राथमिकता नहीं. उदाहरण के लिए गैस चुल्हा हमारे लिए अत्यावश्क है. इससे औरतों का श्रम बचता है. लेकिन पैसे की कमी का हवाला देकर हम गैस का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन मोटर साईकल में पेट्रोल भरना हमें नहीं अखरता. थोड़ी उंची कक्षा में पहुंचते ही बच्चे-बच्चियों को मोबाईल की तलब होने लगती है. मोबाईल है तो फिर डाटा भी चाहिए. और उसका अधिकतर इस्तेमाल गेम खेलेन या अन्य बेकार के कामों में ही होता है.
कुल मिला कर कहें तो उपभोक्तवादी संस्कृति आज के समय में आदिवसी समाज की सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है.