जेपी रेल और खान मजदूरों का सवाल लेकर दिल्ली गये थे। दिल्ली में दंगा चल रहा था। जेपी ने जो हालत देखी, जो तस्वीर देखी, उससे वह बहुत चिंतित हुए, परेशान हुए। सिर्फ दुखी नहीं हुए, देश के अंधकारमय भविष्य की कल्पना कर स्तब्ध रह गये। हालांकि दूसरी तरफ देश में असंतोष था, बेकली थी, देश के नौजवान जेपी की ओर ध्यान लगाए बैठे थे। ऐसी हालत में जेपी ने यह आवश्यक माना कि वह अपने विचारों को युवाओं के सामने रख दें, ताकि युवा समझ सकें कि वह क्या चाहते हैं और उन्हें कहाँ ले जाना चाहते हैं। जेपी ने लिखाः इस अर्से में देश में बड़ी-बड़ी घटनाएं घटी हैं। उन घटनाओं का क्या महत्व है, मैं नहीं जानता कि आप में से कितने भाई उसे समझते होंगे। उन घटनाओं ने देश के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा कर दिया है। 15 अगस्त को देश आजाद हुआ। बड़ी कशमकश के बाद हमने आजादी हासिल की। आपस में जो भी झगड़े हों, प्रवृत्तियां हों, रास्ते हों, लेकिन यह आजादी बराबर कायम रहेगी, यह आमलोगों का ख्याल है। किंतु, पिछले हफ्ते की घटनाओं ने सवाल पेश किया है कि यह आजाद हिंदोस्तान कितना दिन जिंदा रह सकेगा? यह जिंदा रहेगा भी कि नहीं?
मैं मानता हूं, सबको इस खतरे का अनुभव नहीं हो सकता। आजाद भारत के जीने पर भी संशय हो, इतनी दूर तक अभी बहुतों ने नहीं सोचा है। लेकिन, यदि आप हालत को समझेंगे और सोचेंगे, तो आप भी उसी नतीजे पर आएंगे।
अखबारों में आपने सिर्फ यह पढ़ा होगा कि पंजाब और दिल्ली में दंगे हो रहे हैं। पश्चिमी पंजाब में जो जुल्म हुए, उसकी प्रतिक्रिया पूर्वी पंजाब में हुई और वही फिर बढ़ते-बढ़ते दिल्ली पहुंचेगी। लेकिन, मेरे साथ आप दिल्ली में होते, तो आप भी अपनी आंखों से देखते कि सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दंगा ही नहीं हो रहा था, उस से भी खतरनाक चीज दिल्ली की सड़कों पर हो रही थी। वहां आजाद हिंदोस्तान के तुरत लगे हुए पौधे की जड़ पर कुल्हाड़ी चला रही थी। आजाद हिंदोस्तान की नींव हिल रही थी। सड़कों पर फौज के सिपाही खड़े हैं, मशीनें हैं, फौजी लारियां हैं, राइफल लिये सैनिक हैं, लेकिन, उनके सामने कत्ल हो रहा है और वे तमाशा देख रहे हैं। हुकूमत का हुक्म था जहां कहीं लूट होते देखो, तुरंत गोली चलाओ। हत्यारों को गोली का निशाना बनाने से मत चूको। यह हुक्म था हिंदोस्तान के प्रधानमंत्री का, उनकी कैबिनेट का। किंतु, उन्हीं के नौकर खुलेआम उनकी मुखालफत कर रहे थे, आज्ञा का उल्लंघन कर रहे थे। आप ही सोचिए, जिस हुकूमत का हुक्म उसके सैनिक मानने को तैयार नहीं, कितने दिनों तक चल सकेगी?
मेरे मन में यह प्रश्न हुआ - नब्बे वर्षों से आजादी की जो लड़ाई हमने लड़ी, सन् सत्तावन से ही जो बड़ी-बड़ी कुर्बानियां हम करते आए हैं, हमारी बहनों ने जो बेइज्जतियां उठाईं, हमारे भाइयों ने माता की वेदी पर अपनी जानों की जो बलि चढ़ाई, सरदार भगत सिंह और उसके साथियों ने, बंगाल के क्रांतिकारियों ने, बिहार के बैकुंठ शुक्ल ने, कहां तक गिनाऊं, हजारों नौजवानों ने जो अपने को देश पर निसार कर दिया, मिटा दिया य क्या उसका हश्र यही होने वाला था? लाखों आदमी वर्षों से जेलों में सड़ते रहे। गांव के गांव लुट गए, बर्बाद हुए य क्या उसका नतीजा यही होना था? हमने अपने खून से जिस पौधे को सींचा, उस पौधे पर इस तरह हमारी आंखों के सामने ही हमले हों?
आप कहिएगा, फौज ने हुक्म नहीं माना तो क्या हुआ, इससे आजादी पर कौन-सा खतरा? लेकिन, कल्पना कीजिए, अगर दिल्ली की हालत पटना, नागपुर, मद्रास, कटक आदि जगहों में हो, तो फिर देश की हालत क्या हो जाय? सौ-डेढ़ सौ वर्षों तक अंग्रेजी हुकूमत रही, सब लोग उसका हुक्म सर झुकाकर मानते रहे, राजे-महाराजे भी सर झुकाते रहे। लेकिन, उस हुकूमत के खतम होने के बाद अगर दिल्ली में कोई हुकूमत न रह जाय, जो देश भर में शांति कायम रख सके, उसके मुलाजिम, उसके सैनिक उसका हुक्म न मानें, तो क्या फिर सारा देश टुकड़े-टुकड़े में बंटने से बच सकता है?
मुगलों का राज एक शक्तिशाली राज्य था। किंतु, ज्यों ही उस राज्य की नींव कमजोर पड़ी, सारे देश में अराजकता फैल गई. हिन्दू, मुसलमान, मराठे एक दूसरे से और आपस में भी लड़ने लगे। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने विदेशियों के लिए हमारे देश का रास्ता खोल दिया। यदि दिल्ली में एक मजबूत केन्द्रीय राज न हो, तो फिर मुगलों का इतिहास हमारे देश में दुहराया जायगा। अगर सारी फौज उस सरकार की बात न सुने, उसकी आज्ञा को न माने तो क्या हालत हो? यह सोचिये, क्या वह फौज देश की रक्षा कर सकेगी? क्या कोई इन्तजाम रह जायेगा? खुद सेना ही टुकड़े-टुकड़े में बंट जायगी। सिक्ख सैनिक पटियाला का पल्ला पकड़ेंगे, गुरखे नेपाल का, राजपूत जयपुर का और मराठे कोल्हापुर का। उनकी तरफ से वे लड़ेंगे। एक होड़ मच जाएगी कि कौन बैठे दिल्ली के तख्त पर! मराठे कहेंगे, अंग्रेजों ने हमसे राज्य लिया, दिल्ली पर हमारा दावा है. राजपूत कहेंगे, हम तो सूर्यवंशी हैं, हिंदोस्तान का राजमुकुट हमारे लिए सुरक्षित रहना चाहिए। सिक्खों के, गढ़वालियों के अलग-अलग दावे होंगे और इसी होड़ा-होड़ी में देश बर्बाद हो जायगा। याद रखिए, अगर मजबूत राज न हो, तो गुंडों का राज होकर रहेगा। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की हुकूमत कायम होकर रहेगी।
अगले अंक में जारी