इन दिनों आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर एक विवाद छिड़ा है. गौर से देखें तो अपसंस्कृति व उपभोक्तावाद की कोख से उत्पन्न व्यक्ति स्वातंत्र की वजह से आदिवासी समाज में भी अनेक विकृतियां दिखाई देने लगी हैं, लेकिन कुल मिला कर हमारा संसार आज भी गैर आदिवासी समाज से स्त्रियों के लिहाज से बेहतर व सुंदर दिखाई देता है.

आदिवासी महिलाएं घर की बोझ नहीं होती. उन्हें कोई चीज के लिए फोर्स नहीं किया जाता है. उम्र बढ़ने के साथ उन्हें शादी के लिए भी जबरदस्ती नहीं किया जाता. उम्र को लेकर उसे ताना नहीं मारा जाता है. वह जब तक नहीं चाहती, उसकी शादी नहीं होती है. आदिवासी समाज में सबसे अच्छी बात यह है कि पिता पर दहेज का बोझ नहीं होता, और ना ही कभी अल्ट्रासाउंड करवा कर पेट में बेटी की हत्या कर देने जैसी घटना ही होती है. यहां बेटा हो या बेटी, उसे माता पिता प्यार से पालते है.

आदिवासी महिलाएं स्वतंत्रता पूर्वक जीवन यापन करती हैं. वह किसी भी कार्य के लिए पुरुष पर निर्भर नहीं रहती. बाजार जाकर घर का सामान खुद लाती हैं. धान रोपने से लेकर उसे सुखाना, मिल में ले जाकर पिसवाना, सारा काम महिलाएं करती हैं. महिलाएं खेती-बाड़ी सब खुद ही संभालती हैं. बारी में सब्जी हो तो खुद ही तोड़ कर सर में ढोकर बाजार ले जाकर उसे बेचती हैं. देखा जाए तो घर से लेकर बाहर का काम खरीदारी, बिक्री सब कुछ खुद करती हैं आदिवासी महिलाएं. कठिन परिश्रम कर जिंदगी गुजारा करती है.

उनकी समस्या बस गरीबी हैं, जिसके कारण कभी-कभी घर में लड़ाइयां, बहस हो जाती हैं. वह पति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती हैं. पति के श्रम से अगर घर नहीं चलता, तो पत्नी खुद काम करने के लिए घर से बाहर भी जाती हैं. घर में भी सारा काम करती हैं, और बाहर भी, पर कभी पति को ताना नहीं मारती कि आप हम लोगों का पोषण नहीं कर पा रहे हैं. यही तो है स्त्री की आजादी का असली अर्थ-स्वाबलंबी जीवन.

आदिवासी समाज में महिलाएं कम पढ़ी लिखी रहती है, पर हर चीज को समझती हैं. घर- गृहस्ती, बच्चों का पालन-पोषण अच्छे ढंग से करती हैं. पर अब धीरे-धीरे यह समाज भी बाहरी संस्कृति के दुष्प्रभाव से प्रभावित होता जा रहा हैं. इसका कारण बाहर की दीन दुनिया, गरीबी, और इसके साथ सबसे बड़ा कारण महंगाई, जिसके कारण आदिवासी समाज का परिवार बिखरता जा रहा है. माता- पिता बच्चों की पढ़ाई को लेकर एक दूसरे से बहस कर रहे हैं, पूरी तरह से पोषण नहीं हो पा रहा है, और ना ही बच्चों की पढ़ाई हो पा रही है. इन्हीं कारणों से कभी-कभी आदिवासी समाज की बच्चियां भी अपनी पढ़ाई पूरा करने के लिए काम में जुट जाती है.

गैर आदिवासी समाज में लड़कियों को बोझ माना जाता है, शायद इसीलिए दहेज देकर उसे दूसरे घर में बिदा कर दिया जाता है. दहेज का बोझ ही वह कारण है जिसकी वजह से गैर आदिवासी घरों में लड़के की चाहत में पेट के अंदर लड़की को कुछ लोग मार देते हैं. शादी में अच्छा लड़का ढूंढना और उसे मोटा दहेज दे कर शादी कर देना पिता के जीवन की सबसे बड़ी साध होती है. लेकिन इसी वजह से लड़की पैदा होने पर लोग आम तौर पर खुश नहीं होते हैं.

स्त्री पुरुष के शारीरिक क्षमता में प्रकृति ने कोई ज्यादा फर्क नहीं किया है. लेकिन गैर आदिवासी घरों में लड़कियों का पालन पोषण इस तरह होता है कि वह और भी कमजोर हो जाती है. उसे सुंदर दिखना है. कोमल दिखना है. मैंने देखा है कि बहुत सी लड़कियां हाथों में बड़े-बड़े दस्ताने पहन कर स्कूटी चलाती हैं, ताकि धूप में वे कुम्हला नहीं जाये. आदिवासी स्त्री सौंदर्य को लेकर इस कदर कुंठित नहीं होती, न श्रम करने से घबराती हैं, न धूप बारिश से मलिन पड़ती हैं.

हमारे समाज की लड़कियों के कहीं आने जाने पर वैसी बंदिशें नहीं और वे कही आने जाने के लिए पति या भाई पर निर्भर नहीं रहती. स्वेच्छा से विचरण करती हैं. गैर आदिवासी समाज में लड़कियों पर घड़ी- घड़ी नजर रखी जाती है, वह कहां जा रही है, कब जा रही है, सब पर ध्यान रखा जाता है. वे कहीं आने जाने के लिए पिता, भाई या पति पर निर्भर रहती हैं. आदिवासी लड़कियों के लिए यह जरूरी नहीं.

सबसे बड़ा पाखंड तो यह कि वहां औरतों को देवी मानकर उसकी मूर्ति बनाकर उनकी पूजा की जाती है, लेकिन औरतों के साथ अनाचार और बलात्कार की घटनाएं सबसे अधिक बाहर के समाज में ही होता है. यह सही है कि अब आदिवासी समाज में भी कभी कभी बलात्कार की घटनाएं हो जाती हैं, लेकिन आज भी आदिवासी स्त्री के लिए सबसे अधिक सुरक्षित है अपना गांव, समाज.