रांची में या यू कहें पूरे झारखंड में पिछले कुछ वर्षों से सांप्रदायिकत सौहार्द भाजपा व संघ परिवार की तमाम कोशिशों के बावजूद बना हुआ है. और इसका श्रेय उन सामाजिक संगठनों को जाता है जो जनता के वास्तविक सवालों को लेकर जनता को गोलबंद करने के प्रयासों में लगे रहते हैं. लिंचिंग की कुछ घटनाएं जिसके शिकार मुसलमान व आदिवासी हुए हैं, के खिलाफ भी सभी धर्मो-समुदायों से जुड़े संगठनों ने मिल कर संघर्ष किया है. लेकिन अफसोस की बात है कि पिछले दो तीन दिन में हुई घटनाओं ने रांची को भी सांप्रदायिकता के लिहाज से एक खतरनाक जोन के रूप में सामने ला दिया है और इस स्थिति से निबटने के सामूहिक प्रयास कहीं से होते दिखाई नहीं दे रहे हैं.

ले देकर ठीकरा सरकार पर फोड़ा जा रहा है. इसमें कोई शक नहीं कि सरकार विफल रही हिंसा पर काबू पाने में. लेकिन हम क्या मान कर चलें कि अब जो कुछ भी करना है, वह सरकार और पुलिस को करना है? क्या रांची में हुई घटना सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या है? क्या हमें यह बात उद्वंेलित नहीं करती कि विस्थापन, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दे पर अमूमन शांत रहने वाला शहर अब भी धार्मिक सवालों पर एकबारगी आंदोलित हो जाता है?

हमें याद है कि कोरोना काल के पूर्व सीएए के खिलाफ शहीनबाग की तर्ज पर यहां रांची में भी लंबा आंदोलन चला. लंबे चलने वाले धरना कार्यक्रम में मुख्यतः मुस्लिम समुदाय की महिलाओं की भूमिका रही, लेकिन अन्य समुदाय के लोगों ने भी उस आंदोलन को समर्थन दिया. मानवाधिकार के सवाल पर प्रतिकार मार्चों में हमेशा सभी समुदायों के लोगों-संगठनों ने भाग लिया. काश! प्रोफेट मोहम्मद के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी जैसे संवेदनशील मसले पर भी हम सामाजिक संगठनों के लोग मिलजुल कर विचार करते और सर्वसम्मत तरीके से प्रतिकार की कोई योजना बना पाते. तो शायद यह मुद्दा कठमुल्लों के हाथ में नहीं चला गया होता. परिणाम यह हुआ कि नदीम और भुवनेश्वर केवट जैसे समाजकर्मी तमाशबीन बन कर रह गये.

यह बात हम अब तक क्यों समझ नहीं सके हैं कि शांतिमय प्रतिकार, विरोध प्रदर्शन की भी एक मर्यादा होती है. और सबसे अहम तथ्य यह कि इस तरह के प्रतिकार की योजना बनाने वाले और उसका नेतृत्व करने वालों की यह प्राथमिक जिम्मेदारी होती है कि उनका विरोध प्रदर्शन पूर्णतः अहिंसक हो. यह कहने से काम नहीं चलेगा कि उनके विरोध प्रदर्शन में अराजक तत्व शामिल हो गया और उसने हिंसा की, तोड़फोड़ और आगजनी की. जब तक इतना आत्मानुशासन न हो, अपनी ही जनता पर पकड़ न हो, तब तक विरोध प्रदर्शन न करें.

यह घटना भाजपा के लिए मुफीद रही. शहर दो खेमों में बंट गया. मुस्लिम समुदाय ने बंद का आह्वान किया. जाहिर है मुसलमान दुकानदारों ने दुकान बंद किया. अन्य को बंद कराने के लिए हंगामा किया गया. इस क्रम में तोड़फोड़, अगजनी, पत्थरबाजी हुई. फायरिंग हुई जिसमें बड़ी संख्या में मुस्लिम घायल हुए. दो की मौत हो गयी. जबकि शुक्रवार की इस घटना के विरोध में हिंदू संगठनों ने जब बंद का आह्वान किया तो पूरा शहर स्वतः बंद हो गया. बिना पत्थरबाजी के. अभी भी वक्त है. किसी भी सामाजिक मुद्दे पर सभी समुदाय के बुद्धिजीवी और समाजकर्मी एकजुट हों, वरना मामला पूरी तरह से उनके हाथ से निकल कर दोनों समुदाय के कठमुल्लों के हाथ चला जायेगा.