इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि द्रौपदी मुर्मू के रूप में देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति देश को मिलने जा रहा है. भाजपा का संसद में बहुमत है. विपक्ष एकजुट रहता तो थोड़ी बहुत शंका रहती, लेकिन विपक्ष एकजुट नहीं. नितीश, नवीन पटनायक, मायावति, भाजपा से मिल कर महाराष्ट्र में सरकार बनाने वाले बागी शिवसैनिक आदि उनके समर्थन में हैं. जाहिर है, अब द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने की घोषणा महज औपवारिकता रह गयी है. जाहिर है,
आदिवासी जनता को इससे आत्मतोष मिलेगा और भाजपा को यह क्रेडिट की उसने देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति दिया. हमें नहीे भूलना चाहिए कि भले ही भाजपा ने हमेशा आदिवासी हितों के खिलाफ काम किया हो, झारखंड अलग राज्य आंदोलन के लंबे दौर में वह आंदोलन के खिलाफ रहा हो, लेकिन झारखंड अलग राज्य बनाने का श्रेय भी उसी को जाता है. इसे भाजपा की राजनीतिक-रणनीतिक सफलता हम कह सकते हैं. बुद्धिजीवी इसे सोशल इंजीनियरिंग का कहते हैं और इसमें भाजपा को महारत हासिल है.
लेकिन द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से कुछ बाते और भी सुनिश्चित हो गयी हैं.
0 आदिवासियों के लिए अलग सरना कोड का मामला अब और भी दुरुह हो गया है. भाजपा और संघ की शुरु से मानना रहा है कि आदिवासी भले है मनुवादी वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं रहे है, लेकिन सरना और सनातन धर्म एक ही है. आदिवासी हिंदू ही हैं. यह बात भाजपा खेमे के तमाम आदिवासी नेता मानते हैं, चाहे वे अर्जुन मुंडा हों या बाबूलाल मरांडी. वे इस बात को बारहा कहते भी रहे हैं. द्रौपदी मुर्मू उनसे अलग नहीं.
0 द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से भाजपा को राजनीतिक रूप से फायदा होगा. आपको यह जान कर थोड़ा कौतूहल हो सकता है कि फेसबुक, वार्टसएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्माे पर भले ही पेसा कानून के लिए भारी हो हंगामा मचता दिखता हो, लेकिन हकीकत में संसदीय प्रणाली पर टिकी चुनाव व्यवस्था में आदिवासी जनता की भागिदारी यानि, वोट देने का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार आदिवासी वोटिंग का औसत 72 फीसदी है. और आज की तारीख में आदिवासी वोटों में 40 फीसदी वोट भाजपा को जाता है. द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने का लाभ भाजपा को आगे मिलेगा और वे आदिवासी वोटों को भाजपा की तरफ खींच ले जाने में काम आयेंगी. और इसका असर मध्य भारत के आदिवासीबहुल राज्यों में दिखेगा.
0 इस बात को लेकर अब किसी तरह का विवाद नहीं रह गया है कि भाजपा कारपोरेट के हितों की पोषक है. और कारपोरेट को आदिवासी इलाकों की जल, जंगल, जमीन चाहिए. इसके लिए लगातार भूमि अधिग्रहण कानून को, वन कानूनों को, पर्यावरण संबंधी कानूनों को कमजोर किया जा रहा है. ‘राष्ट्रीय हित’ का क्लाउज जोड़ कर राज्यों के अधिकार को छीना जा रहा है. एक ठोस उदाहरण नेतरहाट में चल रहा फायरिंग रेंज के खिलाफ तीन दशकों से चल रहा आंदोलन है. झारखंड के तमाम राजनेता समय समय पर इस आंदोलन का समर्थन करते रहे हैं. लेकिन यह समझौता अब तक रद्द नहीं हुआ. यह राष्ट्रीय हित का समझौता है और केंद्र सरकार की अनुमति के बगैर राज्य सरकार इसे रद्द ही नहीं कर सकती. आदिवासी इलाकों की भूमि भी पेसा कानून और अन्य विशेष भूमि कानून की मूल भावना के प्रतिकूल खरीद फरोख्त की वस्तु में बदलती जा रही है. सामुदायिक इस्तेमाल की जमीन पर से आम जन का हक छिनता जा रहा है. और यह सब जो लोग कर रहे हैं, उनके हाथों को हम राजनीतिक रूप से मजबूत करते जा रहे हैं. कुछ लाग मौके बे मौके यह कहने से बाज नहीं आते कि सभी राजनीतिक दलों का चरित्र एक जैसा है, सभी की नीतियां आदिवासी विरोधी है. इस बात में आंशिक सच्चाई भी है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पेसा कानून बनाने का काम कांग्रेस ने किया. अभी तक की सबसे बेहतर भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास नीति कांग्रेस ने बनायी थी जिसे भाजपा की केंद्र सरकार ने बदल दिया. उसे घोषित रूप से आंदोलन के दबाव में केंद्र सरकार ने वापस जरूर लिया, लेकिन भाजपा शासित राज्यों में, यहां तक की झारखंड में भाजपा द्वारा संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून लागू है.
तो सड़कों पर जुलूस प्रदर्शन करते रहिए, लेकिन साथ ही भाजपा के भावनात्मक मुद्दों के जाल में फंस कर केंद्रीय सत्ता को मजबूत करने का काम भी करते रहिए.