पिछले दस दिनों से महाराष्ट्र में जो कुछ हो रहा है, उसे क्या एक राजनीतिक ड्रामा मात्र माना जाये? इस घटना से यही साबित होता है कि केंद्र में जिस दल का शासन है और जिसके पास धनबल है, इडी, सीबीआई, इनकम टैक्स तथा चुनाव आयोग जैसी ताकतवर संस्थाएं हैं, वह किसी भी राज्य की चुनी हुई सरकार को गिरा सकती है. हालांकि यह नई घटना नहीं है. 2019 के चुनाव के बाद मध्य प्रदेश में यह नाटक रचा जा चुका है. लगता है यह एक ट्रेंड बनता जा रहा है.
महाराष्ट्र में शिवसेना विधायक दल के नेता तथा मंत्री एकनाथ शिंदे और उनके 39 साथी विधायकों को अपने कब्जे में लेने के बाद बीजेपी के सामने अपनी हार को जीत में बदलने का एक अवसर आ गया. वह शिवसेना के बागी विधायकों को लेकर पहले सूरत पहुंची और फिर गुवाहाटी. पांच सितारा होटल में विधायकों का आदर सम्मान किया गया और समय देख कर राजपाल के सामने बहुमत का दावा ठोंक दिया गया.
मुंबई में शिवसेना का एकछत्र साम्राज्य माना जाता है. इसकी विचारधारा भी हिंदूवादी है. फिर भी 2019 में परिस्थितियों से मजबूर हो कर शिवसेना ने कांग्रेस तथा एनसीपी से गठबंधन कर ढ़ाई साल शासन किया. लेकिन अचानक एकनाथ शिंदे को लगा कि शिवसेना ने महाअघाड़ी से गठबंधन कर हिंदुत्व की अपनी विचारधारा के साथ समझौता कर लिया है. इसलिए वह अपने 39 सहयोगियों के साथ बीजेपी के खेमें में पहुंच गया. इसका पुरस्कार भी उसे मिला. उसे महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया गया. इस तरह महाराष्ट्र में फिर बीजेपी का शासन हो गया.
किसी भी दल के चुने हुए विधायक इतनी बड़ी संख्या में बगावत कर देते हैं तो इसके पीछे कोई कारण अवश्य रहा होगा. वैसे, शिंदे का कहना है कि हिंदुत्व की रक्षा के लिए उसने बीजेपी के साथ हाथ मिलाया है जो एक सहज गठबंधन है. शिंदे के इस दावे का विरोध करते हुए मुंबई सहित महाराष्ट्र के कई जगहों पर लोग सड़क पर उतर आये और उन्होंने उद्धव ठाकरे में विश्वास जताते हुए यह कहा कि उनके हिंदुत्व पर कोई खतरा नहीं है.
घटनाक्रम की व्याख्या करने वाले लोगों का कहना है कि शिंदे के साथ गये 39 विधायकों में से 16 विधायक पहली बार जीत कर आये हैं. 15 विधायक शिवसेना के टिकट पर दूसरी बार विधानसभा में पहुंचे हैं. शेष कुछ सदस्य ही शिवसेना के पुराने सदस्य हैं. पांच बागी तो ऐसे हैं जो दूसरी पार्टी से शिवसेना में आये हैं और उन्होंने पहले के चुनावों में शिवसेना को हराया भी था. इस तरह शिंदे को छोड़ कर शेष बागियों की हिंदुत्व के प्रति निष्ठा के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है. यह भी स्पष्ट है कि विभिन्न दलों में जो गठजोड़ बनते हैं, वे किसी विचारधारा के आधार पर नहीं बनते. बीजेपी और शिवसेना समान विचारधारा वाली पार्टी होते हुए भी दोनों के गठबंधन में कभी अच्छा संबंध नहीं रहा है.
यह भी कहा जा रहा है कि 39 विधायकों में से 21 विधायकों पर अपराधिक मामले दर्ज हैं. अकेले शिंदे पर 18 मामले दर्ज हैं. इस तरह इन विधायकों के उपर सीबीआई, पुलिस, कोर्ट कचहरी की तलवार लटकी है जो उन्हें केंद्रीय सत्ताधारी पार्टी के साथ हाथ मिलाने को बाध्य करती है.
भाजपा ने आनन फानन में शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस को उप मुख्यमंत्री बनाया है. लेकिन दल बदलने वाले ये बागी विधायक अभी भी अपने को शिवसैनिक ही कहते हैं. जबकि उन्हें शिवसेना का कोई समर्थन प्राप्त नहीं है. इस तरह यह एक असंवेधानिक काम हुआ. शिवसेना के कुछ विधायक सत्ता पक्ष में रहेंगे तो कुछ विधायक महाअघाड़ी के साथ बैठेंगे. यह एक अनूठी व्यवस्था होगी.
अब बीजेपी ने इतना बड़ा खेल रचाया तो उसके पीछे निश्चित रूप से कुछ निहितार्थ तो जरूर है. 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं. महाराष्ट्र से 48 सांसद आते हैं. सत्ता में रहते हुए चुनाव जीतना किसी भी दल के लिए आसान होता है. इसके अलावा शिंदे शिवसेना के सथियों को नये गठबंधन की ओर जरूर आकर्षित करेंगे. हो सकता है धीरे-धीरे सारे गिले शिकवे भूल कर शिंदे और उद्धव में मेल हो जाये जो बीजेपी के ही पक्ष में होगा. महाअघाड़ी में रह कर कांग्रेस ने महाराष्ट्र की राजनीति में जो पैठ बनायी हुई थी वह भी खत्म हो जायेगा. इस तरह 2024 के चुनाव में बीजेपी का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा.
लेकिन इस हाई वोल्अेज ड्रामा में तो प्रजातंत्र के चिथड़े उड़ गये. प्रजा और तंत्र अलग हो गये. प्रजा को समझ में आ गया कि मत देकर अपने प्रतिनिधि को विधानसभा में भेजने के बाद उसके सारे अधिकार समापत हो जाते हैं. उसके पास यह अधिकार नहीं है कि दायित्वहीन विधायकों को वापस बुला ले. 2014 के चुनाव के बाद से महाराष्ट्र में 7 बार बहुमत प्राप्त सरकार को अपदस्थ किया गया. इस तरह चुनाव में हार को भी जीत में बदलने का मौका पार्टियों के पास होता है.