स्टेनस्वामी पर आरोप यही लगाया है केद्रीय जांच एजंसियों ने जिसके तहत उनकी गिरफ्तारी हुई और जिसकी वजह से उनकी जेल में ही मौत हुई. मामला भीमा कोरेगांव वाले मामले से जुड़ा है जिसके बारे में आरोप यह लगाया गया है कि वहां हिंसक वारदात माओवादियों के उकसावे की वजह से हुआ और उसमें यह भी जोड़ा गया कि माओवादी मोदी की हत्या का षडयंत्र रच रहे थे.
इस प्रकरण में बहुत सारे तथ्य सामने आ चुके हैं, बावजूद इसके इस मामले में गिरफ्तार किये गये अनेकानेक बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकार्ता अभी भी जेल में हैं. दरअसल, आज की तारीख में किसी को भी माओवादी होने या माओवाद का समर्थक होने के नाम पर गिरफ्तार कर जेल में बंद कर देना सत्ता के लिए बेहद आसान है. माओवादी साबित करने के लिए तो कुछ ठोस सबूत चाहिए, लेकिन माओवाद या माओवादियों का समर्थक घोषित होने के लिए तो किसी ठोस प्रमाण की जरूरत भी नहीं.
यदि आप शोषण व उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठायेंगे, सरकार की नीतियों की आलोचना करेंगे, तो पहले आपको कम्युनिस्ट कहा जायेगा और फिर माओवादियों का समर्थक. और एक बार यह ठप्पा लग गया तो आपको उन धाराओं के तहत गिरफ्तार करना बेहद आसान हो जाता है जिसमें जमानत तक मिलना कठिन होता है.
स्टेनस्वामी का जीवन खुली किताब जैसा था. वे नामकुम स्थित सामाजिक संस्था ‘बगईचा’ के एक कमरे में रहते थे. उस संस्था के गेट पर कोई सिक्युरिटी गार्ड नहीं रहता है. किसी की भी आमद-रफ्त किसी भी वक्त वहां हो सकती है. स्टेन सबके लिए हर वक्त सुलभ थे. साथ ही, वे झारखंड के राजनेताओं, अधिकारियों से भी गाहे बगाहे मिलते थे. आदिवासी मामलों पर प्रेस कंफ्रेंस करते थे, धरना, प्रदर्शनों में भाग लेते थे. चूंकि वे तीन दशकों से भी अधिक समय से झारखंड के सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय थे, इसलिए राजनेता हो या ब्येरोक्रैट, उन्हें जानते थे. जरूरी नहीं कि उन्हें पसंद भी करते हांे, लेकिन लंबे सामाजिक जीवन में उन पर कभी भी माओवादियों की हिंसक गतिविधियों में भाग लेने का आरोप नहीं लगा.
फिर अचानक उन्हें माओवादी या माओवाद का समर्थक कैसे बना दिया गया? यदि दो टूक पूछा जाये कि क्या वे माओवादी हिंसा के समर्थक थे? तो जवाब नहीं ही होगा. पहले ही कह चुका हूं कि उनका जीवन खुली किताब जैसा था और वे हर वक्त हर किसी के लिए सुलभ थे. लेकिन वे मानवतावादी जरूर थे और मानवाधिकार के प्रबल समर्थक. वे सत्ता की हिंसा के प्रखर आलोचक थे. साथ ही इस बात के भी समर्थक कि माओवादी के रूप में चिन्हित लोगों को भी ‘न्याय’ का अधिकार है.
शायद इसीलिए उन्होंने झारखंड की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों के सर्वेंक्षण का काम करना शुरु किया था. और इस तथ्य को उजागर किया था कि विचाराधीन कैदयों में बड़ी संख्या आदिवासियों की है, जो गरीब होने की वजह से न्यायिक प्रक्रिया का खर्च नहीं उठा पाते और जेल में वर्षों से सड़ रहे हैं. वे झारखंड के समीपवर्ती राज्यों के जेलों में भी सर्वेंक्षण का काम करवाना चाहते थे जो अधूरा रह गया.
वैसे, यह काम अब कुछ लोग कर रहे हैं और इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यूएपीए जैसे कानूनों के शिकार लोगों में सबसे अधिक आदिवासी समूह के लोग है. और वजह शायद यह कि कारपोरेट जगत को उनके जल, जंगल, जमीन, खदान आदि की दरकार है और वे उनका विरोध करते हैं और इस क्रम में कारपोरेट की लठैत बनी प्रशासन, पुलिस के कोप का भाजन बनते हंै. हमे समाज के प्रभु वर्ग द्वारा गढ़े इस मिथ को तोड़ना होगा कि विकास के चालू माॅडल या सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने का मतलब यह नहीं कि विरोध करने वाला माओवादी है या माओवादी हिंसक राजनीति का समर्थक. क्योंकि इसी भ्रमजाल में फांस कर सत्ता उन तमाम लोगों के दमन की फिराक में रहती है जो वंचित जमात के हितों की बात करते हैं.
हम और हमारे साथी तो इस बात पर पक्के तौर पर यकीन करते हैं कि आज के समय में अन्याय का विरोध गांधीवादी तरीके से ही हो सकता है, हिंसक राजनीति से नहीं. स्टेन को मैने जितना जाना, वे भी इसी बात के समर्थक थे.