झामुमो ने महागठबंधन धर्म का निर्वहन न कर भाजपा के प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू को आखिरकार दे दिया, लेकिन देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति देने का श्रेय तो मोदी जी को ही जायेगा और उसका राजनीतिक लाभ भी भाजपा को ही मिलेगा. ठीक वैसे ही जैसे अलग राज्य के लिए संघर्ष तो झामुमो और अन्य झारखंडी दलों ने वर्षों किया, लेकिन अलग राज्य बनाने का श्रेय भाजपा ले गयी और उसका राजनीतिक लाभ भी भाजपा को मिला. केंद्र में भाजपा की सरकार ही बनाने में झारखंड के सांसदों की महत्वपूर्ण भूमिका थी. और झारखंड बनने के बाद सबसे अधिक वर्षों तक भाजपा ने ही इस राज्य पर शासन किया. झामुमो झारखंड का एक प्रमुख राजनीतिक दल है, लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी उसके विधायकों की संख्या 30 तक पहुंची है. और दो वर्ष बाद जब झारखंड में विधान सभा चुनाव होंगे, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने का श्रेय व राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा.
सवाल सिर्फ झारखंड का नहीं, झारखंड से सटे मध्य भारत के कई राज्यों में आदिवासी आबादी संकेंद्रित है. और अभी की वास्तविकता है कि आदिवासी वोटों का करीबन 40 प्रतिशत अभी भाजपा को मिलता है. उस भाजपा को जो खुल्लमखुल्ला कारपोरेट की समर्थक है और कारपोरेट जगत आदिवासियों के जीवन के प्रमुख संसाधनों- जल, जंगल, जमीन, खनिज संपदा व श्रम का दोहन कर रहा है. द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने का श्रेय भाजपा को जायेगा और उसे मिलने वाले आदिवासी वोटों का अनुपात और बढ़ेगा. उसकी सत्ता बढ़ेगी और कारपोरेट का शिकंजा भी. मानना होगा कि सोशल इंजीनियरिंग में भाजपा का जवाब नहीं. द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए नाममित करना उसकी कूटनीतिक चाल है और इस चाल से पूरा विपक्ष चित. झामुमो की बात जाने दीजिये, उद्धव ठाकरे तक द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करने के लिए बाध्य हो गये. केजरीवाल यदि विरोध कर पाये तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि उनकी राजनीति का क्षेत्र आदिवासी इलाके के बाहर है.
वैसे, यह एक भावनात्मक मुद्दा है. अभिजात्य तबका और समाज का उच्च वर्ग इस बात को समझता है कि उसका राजनीतिक हित किस बात में है. उदाहरण के लिए भाजपा ने आदिवासी उम्मीदवार दिया, लेकिन भाजपा के बहुसंख्यक गैर आदिवासी सांसद और विधायक द्रौपदी मुर्मू को समर्थन करेंगे क्योंकि वे इस बात को समझते हैं कि द्रौपदी मुर्मू आदिवासी होने के बावजूद वे भाजपा की नीतियों को ही मजबूत करेंगी. वे विपक्ष के गैर आदिवासी प्रत्याशी यशवंत सिन्हा को समर्थन नहीं करेंगे. लेकिन आदिवासी जनता दलगत राजनीति पर टिकी संसदीय व्यवस्था की बारीकियों को नहीं समझती.
इस देश ने मुस्लिम राष्ट्रपति देखा और मुस्लिम आबादी को हर रोज तबाह होते भी देख रही है. दलित राष्ट्रपति तो हैं, लेकिन दलित अब भी जहां तहां जिंदा जलाये जाते हैं, उनका अमानवीय शोषण और उत्पीड़न हो रहा है, महिला राष्ट्रपति बनी, लेकिन महिलाओं की स्थिति भारतीय समाज में कैसी है, यह किसी से छुपा नहीं. अब आदिवासी राष्ट्रपति देश को मिलने वाला है. देखें द्रौपदी मुर्मू किस हद तक आदिवासी हितों की रक्षा कर पाती हैं या कुल्हाड़ी की बेंत बन कर रह जाती हैं.