बारहवीं कक्षा पास करने के बाद तकनीकि शिक्षा में जाने के इच्छुक छात्रों को प्रवेश परीक्षा देनी होती है. अच्छे विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर कक्षाओं में प्रवेश के लिए भी अधिकतर जगहों पर प्रवेश परीक्षा देनी होती है. लेकिन अब सरकार ने बारहवीं के बाद किसी भी विश्वविद्यालय या उससे संबंधित कालेजों में स्नातक की पढ़ाई के लिए भी छात्रों के लिए प्रवेश परीक्षा अनिवार्य बना दिया है. जिसका परिणाम यह होने वाला है कि अब स्कूलों के परीक्षा फल का कोई महत्व नहीं रहने वाला है.
वैसे, सरकार की इस नीति का कुछ लोगों ने यह कह कर समर्थन किया है कि इससे सभी स्तर के छात्रों को कालेजों में प्रवेश पाने का अवसर मिलेगा अन्यथा अच्छे स्कूलों में पढ़े और बोर्ड में अच्छे अंक प्राप्त किये छात्रों को ही यह मौका मिलता था. साथ ही सरकार की इस नई पहल की आलोचना भी हो रही है.
सबसे पहली और महत्वपूर्ण आलोचना तो यही है कि जैसे-जैसे प्रवेश परीक्षाओं की संख्या बढ़ेगी, वैसे वैसे कोचिंग व्यवसाय में भी वृद्धि होती जायेगी. इंजीनियरिंग या मेडिकल के छात्रों के लिए तो कोचिंग सेंटर अनिवार्य बन गये हैं, अब डिग्री कोर्स में भी प्रवेश परीक्षा देनी होगी, तो माना जा रहा है कि स्कूल की पढ़ाई इसके लिए पर्याप्त नहीं है. प्रवेश परीक्षा में पास करना हो तो कोचिंग करना ही होगा. जाहिर है, कोचिंग सेंटर का लाभ वही छात्र उठा पायेंगे, जिनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी.
वैसे तो छोटे बड़े कोचिंग सेंटर का जाल पूरे भारत में फैला है, लेकिन कोटा, दिल्ली, बोकारो, रांची, पटना जैसे शहर इस कोचिंग के लिए प्रसिद्ध हो गये हैं. ये कोचिंग सेंटर कई स्तरों पर काम करतंे हैं. पहला तो बारहवीं के बाद बच्चे प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंग सेंटर में जाते हैं. एक साल या छह महीने जो भी तैयारी का समय रहता है, उसमें लगाते हैं. इसके लिए कोचिंग सेंटर को एकमुश्त पैसा दिया जाता है.
कुछ कोचिंग सेंटर डमी स्कूल भी चलाते हैं. यानि, 11वीं कक्षा में छात्र किसी ऐसे स्कूल में नाम लिखवा लेते हैं जहां उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती. वे स्कूल छात्रों को केवल 12 वीं के बोर्ड की परीक्षा देने की सुविधा प्रदान करते हैं. अब ये छात्र किसी भी कोचिंग सेंटर के डमी स्कूल में भर्ती हो कर 11 वीं और 12 वीं की पढ़ाई करते हैं और साथ ही प्रवेश परीक्षा की तैयारी भी करते हैं.
कोचिंग सेंटर का तीसरा स्तर यह होता है कि कुछ नामी कोचिंग सेंटर कुछ स्कूलों के साथ टाई अप करते हैं. उनका काम होता है, स्कूल के 11 वीं और 12 वीं के छात्रों को स्कूल के समय के बाद छात्रों को प्रवेश परीक्षा की तैयारी करवाना. अब तो यह 9 वीं कक्षा से ही वे तैयारी करवा रहे हैं. कुछ स्कूलों में तो ये कोचिंग सेंटर वाले छठी कक्षा के बच्चों को प्रवेश परीक्षाओं की नींव मजबूत करने के लिए पढ़ाई शुरु कर चुके हैं. इस तरह कोचिंग सेंटरों का प्रवेश स्कूलों तक में हो चुका है. और ग्रैजूयेशन के लिए प्रवेश परीक्षा इन कोचिंग सेंटरों को फलने-फूलने का और अवसर देगी.
इस सारे संदर्भ में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि प्रवेश परीक्षा में ऐसे कौन से प्रश्न पूछे जाते हैं जो स्कूल में पढ़ाये जाने वाले पाठों से अलग होते हैं और उसकी जानकारी केवल कोचिंग सेंटरों में पढ़ाये जाने वाले शिक्षकों की ही होती है. मोटी रकम लेकर बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का दावा करने वाले निजी स्कूल के बच्चों को भी अंत में इन कोचिंग सेंटरों की शरण में जाना पड़ता है. सरकारी स्कूलों में तो यह मान कर चला जाता है कि वहां की पढ़ाई प्रवेश परीक्षा के लायक नहीं होती है. वहां पढ़ने वाले छात्रों के लिए तो कोचिंग के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है.
निजी हो या सरकारी स्कूलों में विद्यार्थी और शिक्षक का अनुपात रखना पड़ता है., प्रयोगशाला, पुस्तकालय, खेल का मैदान वगैरह भी अनिवाये होता है, लेकिन डमी स्कूलों के लिए ऐसा कोई मापदंड नहीं है. शिक्षा विभाग का कहना होता है कि कोचिंग सेंटर उनके नियंत्रण क्षेत्र में नहीं आते हैं. इससे स्पष्ट होता है कि कोचिंग सेंटर के लिए जो भी लाईसेंस मिलते हैं, वे विशुद्ध व्यावसायिक होते हैं जिसका इस्तेमाल कोचिंग सेंटर अपने लाभ के लिए ही करते हैं.
हम बच्चों को स्कूल क्यों भेजते हैं, क्या केवल बोर्ड परीक्षा देकर पगवेश परीक्षा की पात्रता ग्रहण करने के लिए? या फिर उसका बौद्धिक और शारीरिक विकास हो. स्कूल और कोचिंग सेंटर के बीच पेड़े जाते इन बच्चों का उचित शारीरिक तथा मानसिक विकास नहीं हो पा रहा है तो इसकी पहली जिम्मेदारी सरकार की शिक्षा नीति तथा प्रवेश परीक्षाओं पर जाती है. स्कूल की पढ़ाई यदि उच्च शिक्षा के लिए काफी नही ंतो उसमें सुधार होना चाहिए, न कि कोचिंग व्यवसाय को फलने फूलने का अवसर मिले. इन सबके बीच नुकसान हो रहा है तो केवल बच्चों का हो रहा है. प्रवेश परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण छात्र निराशा के ही शिकार हो कर रह जाते हैं.