ईरान में महिलाएं हिजाब को लेकर आंदोलनरत हैं. उनके अनुसार उन्हें अपनी इच्छा से पोशाक पहनने का अधिकार है. शरीयत के नाम पर उन्हें हिजाब पहनने का बाध्य नहीं किया जा सकता है. उनका यह भी कहना है कि शरीयत के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों को सम्मानजनक वस्त्र पहनने की हिदयत दी गयी है, लेकिन यह नियम केवल स़्ित्रयों के लिए ही मान लिया गया है. सार्वजनिक स्थानों पर ढ़ीले कपड़े पहनने तथा बालों को छुपाते हुए हिजाब पहनने का नियम उनके लिए बना दिया गया. ईरानी महिलाएं इसे अपनी आजादी का हनन मानती हैं और हिजाब से मुक्ति चाहती हैं.

हिजाब के विरुद्ध यह आवाज कई सालों से उठती रही है, लेकिन 13 सितंबर को जब मोरल पुलिस की हिरासत में बाईस वर्षीया महसा आमिनी की मृत्यु हो गयी, तो महिलाओं के सब्र की बांध टूट गयी. आमिनी की गलती यही थी कि उसने हिजाब को ढ़ंग से नहीं पहना था जिससे उसके केश दिख रहे थे. मोरल पुलिस की यातनाओं से वह कोमा में चली गयी और मर गयी. मोरल पुलिस ईरानी पुलिस की एक शाखा होती है जिसे गश्त ए इर्शाद या निगरानी दस्ता कहा जाता है. इनका काम ही होता है कि वे महिलाओं पर निगरानी रखें कि वे इस्लामिक कोड के अनुसार कपड़े पहने हुए हैं या नहीं.

ईरानी महिलाओं का यह आंदोलन दिन पर दिन विस्तृत होता जा रहा है. इन्हें समाज के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त है. पुरुष भी इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. कई महिलाएं सार्वजनिक रूप से अपने हिजाब को जला रही हैं और अपने केश काट रही हैं. यह आंदोलन ईरान के लगभग 81 शहरों में फैल गया है. विदेशों में रहने वाली ईरानी महिलाएं भी अपने शहरों में जुलूस निकाल कर इसका समर्थन कर रही हैं. आंदोलन को कुचलने के लिए ईरानी पुलिस पानी के बौछार तथा अश्रु गैस तो छोड़ ही रही है, कहीं-कहीं गोलियां भी चला रही हैं. सरकारी आकड़े के अनुसार पुलिस की इस कार्रवाई से 41 लोगों की जाने गयी हैं, लेकिन वहां के मानवाधिकार संगठन का कहना है कि मरने वालों की संख्या इससे कहीं अधिक है. ईरान के कई प्रमुख व्यक्ति, खिलाड़ी, अभिनेता, कलाकार भी इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं.

ईरान में हिजाब को लेकर चल रहे इस लंबे आंदोलन को देखने वाले पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह आंदोलन केवल हिजाब के विरुद्ध ही नहीं है, बल्कि सरकारी नीतियों के विरुद्ध भी है. लोगों के निजी तथा सार्वजनिक जीवन पर धर्म के नाम सरकार का अंकुश लोगों में असंतोष का मुख्य कारण है. इसके अलावा रुपये का अवमूल्यन, महंगाई, बेरोजगारी आदि के कारण भी जन मानस सरकार के विरुद्ध होती गयी. हिजाब आंदोलन एक अवसर बना. लोग सरकार विरोधी नारे लगाते हुए सड़कों पर आ गये.

लोग तो आर पार की लड़ाई के लिए तैयार दिख रहे हैं, लेकिन सरकार भी दृढ़ दिख रही है कि वह इसे सफल नहीं होने देगी. वह किसी भी तरह कमजोर होना नहीं चाहती. ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने टीवी में अपने भाषण में कहा भी कि ईरान में अभी आंदोलन करने का समय नहीं है. उनके सामने कई अन्य समस्यायें हैं जिनका समाधान पहले होना है. सरकार के इस रुख के चलते ईरान में आंदोलन का भविष्य अनिश्चित है.

ईरानी महिलाओं का यह हिजाब आंदोलन हमें दक्षिण कर्नाटक के मुस्लिम लड़कियों के हिजाब आंदोलन की याद दिला देती है. देखा जाये तो दोनों देशों की लड़कियों का आंदोलन एक अर्थ में समान है, वह इस रूप में कि दोनों देशों की लड़कियां अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रही है. अंतर है तो इतना है कि ईरान की लड़कियां हिजाब से मुक्ति चाहती हैं और कर्नाटक की लड़कियां अपनी इच्छा से हिजाब पहनने के अधिकार को पाना चाहती हैं. भारत में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब की लड़ाई अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है. सरकार की मुस्लिम विरोधी नीतियों के विरुद्ध अपने असंतोष को प्रकट करने की यह लड़ाई है.

हर धर्म में धार्मिक नियमों का बोझ महिलाओं को ही ढ़ोना पड़ता है. जैसे हिंदू स्त्रियों सारे व्रत, उपवास करती है. माथे पर सिंदूर, मंगलसूत्र धारण करती है. हिजाब भी मुस्लिम महिलाओं पर थोपा गया एक धार्मिक नियम है. इनका विरोध अवश्य होना चाहिए. हिंदू, मुस्लिम भेद भाव के कारण सरकारी स्कूलों में हिजाब पर रोक लगती है तो इसके विरोध में मुस्लिम लड़कियों के साथ हम खड़े हैं, लेकिन ईरान की महिलाओं ने हिजाब से मुक्ति की जो आवाज लगायी है, उसके समर्थन में न केवल भारत बल्कि विश्व की सारी महिलाएं उनके साथ हैं.