भारत की गणना विश्व की छठीं आर्थिक शक्ति के रूप में होती है, विरोधाभास यह कि आर्थिक रूप से मजबूत दिखने वाला भारत वैश्विक भूख के इंडेक्स में 107 वें स्थान पर पहुंच चुका है. मोदी सरकार विश्व रैंकिंग में अपने छठें स्थान का प्रचार तो जोर शोर से करती है, लेकिन आईएमएफ के द्वारा जारी भूख के इंडेक्स में अपने 107 स्थान को, जो पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि देशों से भी नीचे चला गया है, सिरे से नकारती है.
हमारे लिए इन दावों और खरिजों से ज्यादा अहम स्वाल यह है कि ऐसा क्यों है? आर्थिक रूप से हम पूरे विश्व में शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के रूप में देखें जाते हैं, वहीं हमारे यहां भूखों की तायदात इतनी बड़ी क्यों है? विश्व की आर्थिक शक्ति के लिहाज से जो पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका या नेपाल हमसे काफी पीछे है, वहीं विश्व भूख इंडेक्स में हमारा स्थान उनसे बद्त्तर क्यों है?
सबसे पहले तो हमें यह समझना चाहिए कि आर्थिक रूप से शक्तिशाली नजर आने के बावजूद सकल घरेलु उत्पाद -जीडीपी- की दृष्टि से हम अमेरिका और चीन से बहुत पीछे हैं. अमेरिका का जीडीपी यदि 23 ट्रिलियन डालर का है और चीन का 17.2 ट्रिलियन डालर, वहीं भारत का महज 3.2 ट्रिलियन डालर. इसलिए हम भले ही विश्व की शक्तिशाली अर्थव्यवस्था होने के दावा करें, विश्व के कुल कारोबार में हमारा योगदान बहुत कम है. वह भी देश की खनिज संपदा और श्रम शक्ति को ध्यान में रखते हुए.
लेकिन उससे भी ज्यादा विरोधाभासी है मजबूत अर्थव्यवस्था की दृष्टि से विश्व रैंकिंग में छठे स्थान पर होना और भूख के इंडेक्स में अति पिछड़े देशों से भी नीचे चला जाना. विडंबना यह कि मोदी सरकार, उनके भक्त और बुद्धिजीवी इस तथ्य को स्वीकार कर उस पर विचार करने के बजाय यह बोलना शुरु कर देती है कि जिन संस्थाओं ने सूची जारी की या तैयार किया, वे फर्जी हैं, उनके पैमाने गलत हैं आदि, आदि.
सवाल उठता है कि गरीबी या अमीरी नापने का जो अच्छा बुरा, सही गलत पैमाना बनाया गया, वही सारे देशों पर लागू किया जाता है. वल्र्ड बैंक और आईएमएफ जैसी संस्थाएं तो अमेरिका पोषित ही हैं जो भारत के सबसे परम मित्र हैं और एकनामिक पावर के रूप में वे मोदी और भारत की पीठ ठोंकता रहता है.
आईये, हम अपने विवेक से इसे समझने की कोशिश करें. पहला कारण तो यह है कि अपने देश में संपत्ति का केंद्रीकरण कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथों में हो गया है. अमीरी- गरीबी की विषमता की खाई बहुत ज्यादा है. आर्थिक संपन्नता और तरक्की का फायदा मुट्ठी भर लोग उठा पाते हैं, इसलिए आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने के बावजूद बहुसंख्यक आबादी गरीबी और भूख से जूझती रहती है और यही हंगर इंडेक्स में परिलक्षित होता है. हमारे पड़ोसी मुल्कों की आर्थिक हालात अच्छे नहीं, लेकिन वहां भारत जैसी आर्थिक विषमता नहीं.
जीडीपी का मूल्यांकन का एक प्रमुख अधार यह है कि देश ने एक खास अवधि में कितना आयात और निर्यात किया. अब आप गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि हम कुल कारोबार में निर्यात कम करते हैं और आयात बहुत ज्यादा. उदाहरण के लिए अगस्त 22 में भारत ने 36.9 बिलियन डालर का निर्यात किया, जबकि आयात 36.6 बिलियन डालर का.
अगस्त 21 और अगस्त 22 के बीच भारत के निर्यात में महज 9.51 फीसदी का इजाफा हुआ, वही आयात में 39.2 फीसदी का इजाफा. और कुल आयात का बड़ा हिस्सा हम चीन से करते हैं जो मोदी सरकार और उनके भक्तों के लिए एक दुश्मन मुल्क है.
कुल कारोबार का बड़ा हिस्सा आयात का होने का एक अर्थ यह है कि ‘मेकिंग इंडिया’ का नारा भले ही मोदी सरकार लगाये, उस लिहाज से देश में कल कारखाने, उद्योग धंधों का विकास नहीं हो रहा. निर्यात के नाम पर हम ज्यादा तर कच्चा माल ही विदेशों को बेचते हैं, चाहे वह लौह अयस्क हो या कपास, या फिर कुछ खाद्य सामग्री. उत्पादन में और इसलिए रोजगार सृजन में हम बहुत पीछे हैं.
आयात में वृद्धि या व्यापार असंतुलन का मतलब यह हुआ कि भारत एक बड़ा उपभोक्ता बाजार है. विशाल आबादी वाले देश में यदि दस फीसदी लोग भी आर्थिक रूप से संपन्न है तों बड़ा उपभोक्ता बाजार बनता है, करीबन 15 करोड़ से भी अधिक का. इस बाजार को देखते हुए भी उत्पादक मुल्क भारत की पीठ ठोंकते रहते हैं, मोदी का गुणगान करते हैं और यहां हो रहे मानवाधिकार हनन, बढ़ती सांप्रदायिकता आदि को नजरअंदाज कर देते हैं.
यह बात की गौर करने की है कि विश्व के पैमाने पर हम लगभग सभी प्रमुख रैंकिंग में पीछे हैं, चाहे वह भूख, कुपोषण, शिक्षा, चिकित्सा, मानवाधिकार या प्रेस की स्वतंत्रता का मामला हो. हम आगे हैं तो मुट्ठी भर लोगों को अमीर बनाने में. 134 करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क में 80 करोड़ आबादी भले सरकारी राशन पर निर्भर हो, यहां, अरबपति और खरबपति तेजी से बढ़ रहे हैं.
हंगर इंडेक्स इसी तथ्य का खुलासा करते हैं.