कभी-कभी झाड़ियों में फेंकी गयी नवजात बच्चियां, कभी नदी किनारे कपड़े में लिपटी, तो कभी किसी अस्पताल के पीछे अंतिम सांसे लेती बच्ची. न जाने कितनी बच्चियों को जन्मते ही मार दिया जाता है या मर जाने के लिए फेंक दिया जाता है. कारण कुछ खास नहीं, बस ‘नाजायज’ संबंधों की लाचारी, कभी अत्यधिक बेटियों का जन्म इत्यादि ही कारण बनते हैं. शायद पिछले माह आये ‘सुरक्षित गर्भपात’ पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला इन पर अंकुश लगा सके.
25 जून 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने पचास वर्ष पूर्व पुराने फैसले को काट कर नया फैसला दिया है. पुराने फैसले में गर्भपात कराने का अधिकार सिर्फ विवाहित महिला को था, लेकिन नया अधिकार किसी भी महिला को यह अधिकार देता है कि वह 24 सप्ताह तक के गर्भ को हटा सके. महिला अधिकारों की कड़ी में यह भी एक महत्वपूर्ण अधिकार है. 1960 तक गर्भपात अवैध माना जाता था. 1 अप्रैल 1972 को गर्भ का चिकित्सकीय समापन-एमपीसी- अधिकार मिला. लेकिन अविवाहित महिलाओं के लिए यह गैर कानूनी ही माना जाता था. अब हर महिला को सुरक्षित गर्भपात का हक मिला है.
तीन जजों की पीठ ने माना कि प्रजनन स्वायत्तता के नियम विवाहित और अविवाहित, दोनों तरह की महिलाओं को समान अधिकार देता है. इस फैसले में एक और महत्वपूर्ण निर्णय यह लिया गया है कि पति द्वारा जबरन यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में आता है और ऐसी स्थिति में महिला को गर्भ रखने या न रखने का एकाधिकार होगा. वर्तमान में दुनिया के कुल 67 देशों में महिलाओं को यह अधिकार मिला हुआ है, जबकि 24 देश अब भी गर्भपात को अपराध मानते हैं.
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोश का ‘पौपूलेशन रिपोर्ट 2022’ के अनुसार भारत में मृत्यु दर के तीसरे कारण की पड़ताल की जाये तो पता चलेगा कि मूल रूप से प्रेम में धोखा, बहला फुसला या डरा कर यौन संबंध बनाना, लिविंग रिलेसनशिप में रहने पर गर्भ ठहरने के फल स्वरूप गर्भधारण करने पर होने वाले जग हंसाई, लांक्षण आदि झेलने से बचने के लिए अविवाहित महिलाएं मजबूरी में असुरक्षित गर्भपात कराती हैं. इस दृष्टि से भी यह अधिकार महत्वपूर्ण है.
लेकिन भारतीय समाज में यह अधिकार लड़कियों के लिए कागजी बन कर न रह जाये. इस समाज में यौन संबंधों पर बात करने पर झिझक होती है. अभी भी जिस देश में बहुत बड़ी आबादी गर्भ निरोध, सैनिटरी पैड, पीरियड जैसे शब्दों के प्रयोग से कतराती हो, वहां पर इस कानून के व्यवहारिक पक्ष पर विचार करना जरूरी है.
यह फैसला महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात का अधिकार तो देता है, लेकिन यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि महिला शरीर कब, कितने अंतराल पर इस कष्ट को झेलने के लिए तैयार रहता है. यह शरीर ही नहीं मन तथा डर से भी जुड़ा हुआ मामला है. यह शंका भी इस अधिकार के साथ जुड़ी है कि कहीं गर्भपात की घटनाओं में बढ़ोत्तरी न हो जाये. सुरक्षित गर्भपात पुरुषों को भी ज्यादा गैर जिम्मेदार न बना दे, क्योंकि अंततः औरत का जीवन ही दांव पर लगता है.