आपने देखा है कि सरहुल, करम या सोहराय जैसे आदिवासी मूलवासियों के पर्व, त्योहारों के पहले मुख्यमंत्री लाल लश्कर सहित सरना स्थलों, ग्रामीण इलाकों की सफाई के कराने निकले हों? कानून व्यवस्था के बिगड़ने के डर से पुलिस बल की जगह जगह तैनाती की गयी हो? शहर की ट्रैफिक व्यवस्था दस पंद्रह दिनों तक के लिए अस्त व्यस्त हो गयी हो? आदिवासी पर्व त्योहारों के समय ऐसी नौबत कभी नहीं आती.
लेकिन गैर आदिवासी पर्व त्योहारों के पहले अक्सर यह सब होता दिखता है. नीचे के चित्र में मुख्यमंत्री छठ के पहले घाटों की सफाई कराने निकले दिख रहे हैं. छट के बाद एक बार फिर सफाई अभियान कराने की जरूरत पड़ेगी. छठ में भी कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस बल की तैनाती की जाती है. रामनवमी के वक्त तो विशेष पुलिस बल की व्यवस्था की जाती है. बावजूद इसके किसी शहर में या कभी-कभी कई शहरों से सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की खबर आ ही जाती है.
आदिवासी पर्व त्योहारों में भी सफाई तो होती ही है. घरों की सफाई, निपायी, रंगाई-पोताई, सरना स्थलों के भीतर सफाई, पुराने झंडों को बदले आदि का काम, खर पतवार साफ करने का काम आदि, लेकिन इसके लिए न नगर पालिका की जरूरत पड़ती है, न किसी मुख्य मंत्री को लाव लश्कर सहित घाटों की सफाई कराने के लिए निकलना पड़ता है. एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत यह काम खुद लोग करते हैं. घर की औरतें करती हैं. सरना स्थलों, या करम पूजा के लिए चुने गये स्थानों की सफाई खुद से लोग करते हैं. न प्रशासन तंत्र पर किसी तरह का बोझ पड़ता है, न नगरपालिका पर. और इन पर्व त्योहारों के वक्त सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने का खतरा तो कभी नहीं रहा.
ऐसा क्यों होता है? यह संस्कृतियों का फर्क है. एक श्रम की संस्कृति वाले समाज के पर्व, त्योहार हैं, दूसरे श्रम के शोषण पर टिके समाज के पर्व त्योहार. एक प्रकृति के साहचर्य में जीवन यापन करने वाले समाज के पर्व त्योहार, दूसरा प्रकृति से दूर या प्रकृति का दोहन करने वाले समाज का पर्व त्योहार. यह कहा जा सकता है कि छठ मनाने वाले, जो दूर-दूर के महानगरों से वापस ट्रेनों में जानवरों की तरह लद कर अपने गांव, घर, शहर कस्बों में आते हैं, वे भी तो श्रम करके ही जीवन यापन करते हैं.
लेकिन बड़ा सच यह है कि वे उसी समाज का हिस्सा होते हैं जो शहर के बीच के तालाबों पोखरो में, समीप की नदियों में गंदा नाला बहाते हैं, सामंती व्यवस्था टूटने के बाद वे उजरती मजदूर में जरूर बदल गये, लेकिन अपने गांव घर से उनका वह आत्मीय रिश्ता नहीं रहा जो उन्हें प्रेरित करे की वे उसे साफ सुथरा रखे. और इसलिए नगरपालिका के कर्मचारियों को यह जिम्मा उठाना पड़ता है कि वह छठ के समय घाटों को साफ करे और पर्व त्योहारों के बाद जो कचड़ा सर्वत्र बिखरा रहता है, उसे हटाये.
और यह भी होता है कि चंद दिनों की सफाई, कृत्रिम पवित्रता का भाव पर्व त्योहार खत्म होते ही तिरोहित हो जाता है. पूजा अर्चना के बाद जो सामग्री बचती है, उसे डस्टबिन में फेंकना धार्मिक भावना के प्रतिकूल माना जाता है. उसे ले जाकर तालाब आदि में ही फेंका जाता है. कांके डैम में एक टैंक बना दिया गया है. वह हर समय भरा रहता है और सरांध फैलता रहता है चारो तरफ. अब नगरपालिका वाले आयेंगे, उसे साफ करेंगे, वरना उसी तरह गंदगी फैली रहेगी. दो चार दिन पूजा के नाम पर सफाई, वह भी नगरपालिका की बदौलत, उसके बाद फिर वही पुराना हाल.
इसे मैं संस्कृतियों का फर्क कहता हूं, आप क्या कहेंगे?