आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा की इस तस्वीर को मैं जब भी देखता हूं, चमत्कृत हो जाता हूं. साधारण कद काठी, औसत देहयिष्टी, सफेद धोती लपेटे, सर पर सफेद पगड़ी और चेहरे पर एक क्षीण, मीठी सी मुस्कान की रेखा जिसमें कौतुक का मिश्रण भी. न किसी तरह की दीनता, न किसी तरह का आक्रोश या भय का निशान. बंधे हाथ, सिपाहियों के बीच चलते निर्भय बिरसा.

इस तस्वीर के वैशिष्ट को आप तब समझ पायेंगे जब इस बात का मनन करेंगे कि यह तस्वीर आदिवासी समुदाय के उस युवक की है जिसने अपने वक्त के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी ताकत से टकराने की हिम्मत की. उस आदिवासी समुदाय का एक युवक, जिसे आज भी बहिरागत दुनिया असभ्य और जंगली मानती है. उस समुदाय के एक युवक ने जो सूत्र वाक्य दिया, वह आज भी लोकतंत्र की मूल भावना को अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम बना हुआ है - ‘अबुआ दिशोम, अबुआ राज’, ‘अपने देश में अपना राज’.

आपको याद रखना चाहिए कि जिस वक्त यह ओजस्वी पंक्तियां हवा में गूंजी थी, उस वक्त देश के तमाम राजे रजवाड़े अंग्रेजी सत्ता के सामने नतमस्तक हो उनके आदर सत्कार में लगे थे. अंग्रेजों के खिलाफ जो शक्तियां संघर्ष कर भी रही थी वे सीमित स्वायतत्ता की मांग कर रही थीं. वैसे, वक्त में विक्टोरिया राज, जिसके बारे में कहां जाता है कि उसमें कभी सूर्यास्त नहीं होता था, के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंकने वाला था यह 20-22 वर्ष का युवक.

आज के खूंटी के एक गांव में जन्में बिरसा अपने पांच भाई बहनों में तीसरे थे. गरीबी इतनी कि उनकी शिक्षा दीक्षा के लिए पहले मौसा मौसी उन्हें अपने गांव ले गये और वहां बिरसा नहीं टिक पाये तो फिर मामा, मामी अपने साथ ले गये. मिशन स्कूल में पढ़ाई लिखाई और अपनी कुशाग्र बुद्धि व विनम्र स्वाभाव वाले बिरसा बांसुरी बजाया करते थे. सबके प्यारे. पादरियों ने उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा दी और कहा जाता है कि नाम रखा दाउद. लेकिन खुद एक सुरक्षित जीवन में प्रवेश कर चुके बिरसा को इस बात का तीव्र एहसास हुआ कि विदेशी पादरी आदिवासियों को हेय दृष्टि से देखते हैं, उनकी नशाखोरी और अंधविश्वास की वजह से और उन्होंने मिशन के जीवन का परित्याग कर दिया.

उन्होंने यह भी समझा कि नशाखोरी और अंधविश्वास आदिवासी समाज का शत्रु है, लेकिन सबसे बड़े शत्रु तो वे जमींदार, कारिंदें और उसके सरपरस्त अंग्रेज हैं जो आदिवासियों से उनकी जमीन और जंगल छीन रहे हैं. उन्हें अपने इलाके से खदेड़ना जरूरी. लेकिन उसके पहले जनता का विश्वास जीतना था. जीवन यापन के लिए जिस घर में वे चाकर बने, उसी से उन्होंने बैद्यक सीखी. बीमारों की सेवा करने लगे और साथ ही उन्हें गोलबंद भी करने लगे. अंग्रेज हाकिमों को खबर लगी तो उनके घर को फौजी दस्ते से घेर कर गिरफ्तार किया. ढ़ाई वर्ष की सजा.

लेकिन जेल की काल कोठरी उनके हौसलों को कुंद न कर सकी. जेल से निकल कर फिर बगावत के स्वर गूंजने लगे. जंगल में अंग्रेजी सेना का प्रवेश. डुंबारी पर्वत गवाह बनी उस निर्णायक संघर्ष की. दहल उठा पूरा इलाका बंदूक की गोलियों से. सैकड़ों मारे गये. लेकिन बिरसा बचे रहे और नये सिरे से शक्ति एकत्रित करने लगे. पूरे इलाके में आजादी का अलख जगाते और रात किसी वृक्ष के तने पर सो कर बिताते. और फिर किसी मुखबिर की साजिश से सोये में गिरफ्तारी और जेल जहां मौत.

कैसा इत्तफाक कि जिस तरह गांधी की हत्या अपनों ने की, उसी तरह बिरसा भी अपने ही बिरादरी के किसी गद्दार की वजह से गिरफ्तार किये गये. बिरसा, भगत सिंह के पूर्ववर्ती थे, जैसे भगत सिंह युवावस्था में शहीद हुए, बिरसा भी युवावस्था में शहीद हो गये और छोड़ गये अपना वह अमर सूत्र वाक्य - ‘अबुआ दिशोम, अबुआ राज’, जो सदियों तक क्रांतिकारियों के मार्ग को आलोकित करता रहेगा.

आईये हम सब उन्हें नमन करें.