भारत सरकार के द्वारा पिछड़ी जातियों, आदिवासी तथा दलित छात्रों को विश्वविद्यालयों में 49 फीसदी आरक्षण मिलता रहा है. अब सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े अगड़ी जाति के छात्रों के लिए भी 10 फीसदी आरक्षण दे दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे सही ठहराया है. इस तरह कुल आरक्षण 59 फीसदी हो गया है.

झारखंड सरकार ने भी आरक्षण की अपनी नीति तय की है जिसको मंत्रिमंडल का अनुमोदन मिल ही चुका था, अब विधानसभा से भी पारित हो चुका है. इसके अनुसार ओबीसी कोटा जो पहले 14 फीसदी था, अब बढ़ कर 27 फीसदी हो गया. एसी कोटा पहले 10 फीसदी था, अब 12 फीसदी हो गया और एसटी आरक्षण जो पहले 26 फीसदी था, अब 28 फीसदी हो गया. इसके अलावा 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक रूप से पिछड़े अगड़ी जाति के लिए है ही. इस तरह कुल आरक्षण 77 फीसदी हो गया. इस राज्य के विभिन्न पिछड़ी जातियों के जनसंख्या के आधार पर यह आरक्षण निर्धारित किया गया. ये सारे आरक्षण सरकारी नौकरियों में तथा विधानसभा तथा लोकसभा में चयनित होने वाले सदस्यों के लिए भी लागू होता है.

आजादी के बाद जब संविधान का निर्माण हुआ तो इसके मूलभूत आधार सामाजिक समता को ध्यान में रखते हुए यह सोचा गया कि पिछड़ी जातियों, आदिवासियों तथा दलितों केलिए विशेष सुविधाओं को देना अनिवार्य है, क्योंकि ये सारी जातियां सदियों से शोषित रहीं और पीछे कर दी गयी. संविधान निर्माता अंबेदकर ने इन्हें दस वर्ष का आरक्षण देकर आगे बढ़ाने की सिफारिश की थी. संविधान के अनुच्छेद 330 से लेकर 342 तक इन जातियों के आरक्षण का उल्लेख है. इसके अनुसार इन लोगों को उनकी जनसंख्या के अनुपात के आधार पर आरक्षण प्राप्त होगा.

अंबेदकर ने जिस दस वर्ष तक के आरक्षण की बात कही, वह 72 वर्ष तक चला आया. समय समय पर संविधान संशोधन के द्वारा यह अवधि बढ़ा दी गयी. जनसंख्या का आधार वर्ष बदलता रहा और आरक्षण का दायरा भी बढ़ा. यहां यह प्रश्न बाजिब है कि लगातार जो आरक्षण मिलता रहा है, तो इन जातियों में कितनी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रगति हुई है. इसकी समीक्षा की गयी है या नहीं. निश्चित रूप से इसकी समीक्षा हुई. इसके बाद आरक्षण में कहीं न कहीं कोई त्रुटि पायी गयी. आंदोलन हुए. नई नीति बनी. आरक्षण का दायरा बढ़ा. इस तरह सभी समस्याओं का समाधान आरक्षण को बढ़ाना ही मान लिया गया. हमसब यह जानते हैं कि आरक्षण दे देने मात्र से ही बराबरी नहीं आ जायेगी. आरक्षण नीति के पीछे की सोच यह रही है कि पिछड़े वर्ग को आरक्षण के द्वारा अवसर देकर शिक्षा तथा नौकरियों में आगे आने का मौका दिया जायेगा और क्रमशः इस आरक्षण में कमी करते हुए इसे समाप्त कर दिया जायेगा. तब माना जायेगा कि समाज के सभी लोगों में समानता आ गयी है. लेकिन आरक्षण का वर्तमान दृश्य इस नीति से बिल्कुल ही उल्टा है. आरक्षण कम होने के बजाय बढ़ता ही गया और देश की साठ प्रतिशत जनता मुख्य धारा में आने के बजाय याचक बन कर ही खड़ी रही.

इन सबके पीछे देखा जाये तो सरकारों की अकर्मण्यता रही है. अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ये सरकारें आरक्षण को ही लक्ष्य मान कर मनमाने ढंग से इसका प्रयोग करती रही है. सभी समुदायों के लिए समान अवसर की बातें कागजी बन कर रह गयी हैं. दोहरी शिक्षा नीति और उसका बाजारीकरण कर सबों के लिए शिक्षा का समान अवसर देने की बात एक सपना बन गर रह गया. आर्थिक विषमता विकराल होती जा रही है. आरक्षण के बावजूद आर्थिक ढ़ाचे में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने के कारण आरक्षण का लाभ आरक्षण पाने वाले पूरी तरह से उठा नहीं पाये. आरक्षण के बावजूद वे उच्च शिक्षा में अपनी जगह नहीं बना पाते. सरकारी नौकरयों में आरक्षित पद भरना तक दुश्वार हो चुका है. भारतीय सेवा में चयनित लोगों में अगड़ी जाति के लोग ही ज्यादा दिखाई देते हैं.

अंत में यही कहा जा सकता है कि समाज में सबको बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए पिछड़ों को आगे लाना जरूरी है. इसके लिए उनको आरक्षण देना भी जरूरी है. लेकिन संपत्ति का असमान वितरण व नौकरियों का निरंतर कम होते जाना, सबसे बड़ी बाधा बन गयी है. विश्व में भारत ही ऐसा देश है जो आरक्षण में विश्वास रखता है. लेकिन एक बड़ा सत्य यह भी है कि भारत जैसी जाति व्यवस्था भी शायद दुनियां में कहीं नहीं रही, जिसके द्वारा सदियों तक समाज के एक बड़े हिस्से को जीवन की बुनियादी सुविधाओं से वंचित रख मनुष्य से एक दर्जा नीचे के स्तर पर जीने के लिए मजबूर किया गया.