हाल में जारी हुई ‘ग्लोबल हंगर रिपोर्ट’ के अनुसार भारत में भूख की स्थिति गंभीर है और अधिकांश देशों से बद्तर (121 देशों में 107वां स्थान). हालाँकि, 2006 से हर साल निकलने वाली इस रिपोर्ट अनुसार देश की स्थिति हमेशा चिंताजनक ही रही है, लेकिन तब से 2014 के बीच कुपोषण व भुखमरी की स्थिति में सुधार हुआ था. पर पिछले कुछ वर्षों में सुधार नगण्य है. पिछले साल की तरह इस वर्ष भी केंद्र सरकार ने रिपोर्ट को गलत बता कर खारिज कर दिया है.
इस रिपोर्ट में भूख की गणना के लिए चार सूचांक प्रयोग किए जाते हैं - उम्र अनुसार कम लम्बाई वाले बच्चों का अनुपात, लम्बाई अनुसार कम वजन वाले बच्चों का अनुपात, बच्चों का मृत्यु दर और कम कैलरी खाने वाली आबादी का अनुपात. पहले तीन सूचांक सरकार के खुद के आंकड़ें हैं और चैथा सरकार द्वारा दी गयी जानकारी अनुसार एफएओ का आंकलन है. भूख के आंकलन के लिए कौन से सबसे उपयुक्त सूचांक होंगे या क्या प्रणाली विज्ञान होगा, यह चर्चा का विषय हो सकता है. लेकिन भारत में व्यापक कुपोषण, गरीबी और भुखमरी को किसी हालत में नाकारा नहीं जा सकता है. सरकार के अपने विभिन्न आंकड़े (जिनमें से कुछ को सरकार ने प्रकाशित करना ही बंद कर दिया है) सहित अनेक शोध संस्थाओं के आंकलन इस ओर ही इंगित करते हैं. शहर की बस्तियों या गावों में जा कर कुछ पल गुजारने से भी सच्चाई स्पष्ट हो जाती है. नाक को सीधे पकड़े या हाथ घुमा के पकडं़े, नाक का स्थान व रूपरेखा वही रहती है.
2019-21 में हुए राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण - 5 के अनुसार भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग एक तिहाई बच्चों का उम्र अनुसार वजन और लम्बाई कम हैं. 2015-16 के सर्वेक्षण की तुलना में बहुत कम सुधार हुआ है. कुछ राज्यों, जैसे झारखंड व बिहार, में तो भयावय स्थिति है. कोविड लॉकडाउन ने देश में भुखमरी की स्थिति का खुलासा कर दिया था. कुछ दिन रोजगार न मिलने के कारण हाशिये पर रहने वाले करोड़ों लोगों को महज पेट भरने के लिए खाने के लाले पड़ गए थे. इन दो सालों का कुपोषण पर हुए प्रभाव का तो अभी तक सही से आंकलन हुआ ही नहीं है. ऐसी स्थिति में कुपोषण और भुखमरी को नकारना अमानवीय है. सवाल यह है कि मोदी सरकार ने पिछले आठ सालों में इन्हें कम करने के लिए क्या किया. पिछले कई दशकों के जनसंघर्ष के कारण यूपीए सरकार के कार्यकाल में कई महत्त्वपूर्ण खाद्य व सामाजिक सुरक्षा कानून व योजनाएं लागू हुई थी, मुख्यतः मनरेगा व राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून. 2001 में शुरू हुए भोजन के अधिकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों एवं 2013 में पारित खाद्य सुरक्षा कानून से जन वितरण प्रणाली, आंगनवाड़ी सेवाएं, मध्याह्न भोजन और मातृत्व लाभ को कानूनी ढांचा मिला और इनका विस्तार हुआ. साथ ही, सामाजिक सुरक्षा पेंशन का भी विस्तार हुआ था. देश की एक बड़ी आबादी के लिए ये योजनाएं जीवनरेखा समान हैं.
यह समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है कि आंगनवाड़ी में अगर बच्चों, गर्भवती महिलाओं व धात्री माताओं को नियमित रूप से अंडा, मांस-मछली, फल, दूध, दाल व सब्जी आदि के साथ सम्पूर्ण आहार मिले, तो कुपोषण कम होगा. लेकिन आंगनवाड़ी से मिलने वाले पोषण के विस्तार के बजाय मोदी सरकार के कार्यकाल में आंगनवाड़ी परियोजना का बजट घटते-घटते 2022-23 में 2014-15 की तुलना में 38 फीसदी कम हो गया है. बड़े धूम-धाम से 2018 में शुरू किया गया पोषण अभियान केवल प्रचार-प्रसार और आंगनवाड़ी सेवाओं में तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की योजना है और न कि पोषण सेवाओं के विस्तार का. यही हाल मध्याह्न भोजन का भी है. बच्चों में कुपोषण कम करने के लिए मातृत्व लाभ योजना का विशेष योगदान हो सकता है. लेकिन सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून अन्तर्गत अधिकार के विपरीत प्रधान मंत्री मात्र वंदना योजना को केवल पहले जीवित बच्चे तक सीमित कर दिया.
कोविड के दौरान जन दबाव व सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बाद केंद्र सरकार ने राशन कार्डधारियों को 5 किलो प्रति व्यक्ति अतिरिक्त मुफ्त अनाज देना शुरू किया. पिछले दो वर्षों से चल रही इस इस योजना की अवधि का राज्यों के चुनाव की तिथि अनुसार विस्तार किया जाता रहा. लेकिन जन वितरण प्रणाली में कार्डधारकों की संख्या को, जो अब भी 2011 की जनगणना पर आधारित है, वर्तमान जनसंख्या अनुसार विस्तार नहीं किया जा रहा है. एक आंकलन अनुसार इस कारण देश के लगभग 10 करोड़ योग्य लोग राशन से वंचित हैं. जन वितरण प्रणाली में दाल व तेल देने पर भी सरकार में चुप्पी है. साथ ही, केंद्र सरकार बहुत कम बुजर्गों को पेंशन देती है, और वह भी महज 200 रु (कुछ खास मामलों में 500 रु) प्रति माह.
ये कुछ चंद उदहारण मात्र हैं जो पिछले आठ सालों में मोदी सरकार की खाद्य, पोषण व सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के प्रति उदासीनता को दर्शाते हैं. साथ ही, इस दौरान इन योजनाओं को आधार आधारित बायोमेट्रिक प्रणाली से जोड़ने के तानाशाही फरमान के कारण लाखों लोग अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हुए एवं कई तो भुखमरी के शिकार भी हो गए. बायोमेट्रिक प्रणाली से लोगों को हो रही परेशानी के बावजूद सरकार ने बड़ी धूम-धाम से ‘एक राष्ट्र, एक राशन’ योजना को शुरू किया जो कि इसी प्रणाली पर आधारित है. तकनीकि समस्याओं के अलावा इस योजना अंतर्गत न जन वितरण प्रणाली से छूटे हुए प्रवासी मजदूरों को फाएदा है और न ही अधिकारों का विस्तार किया गया है.
पिछले कुछ सालों में कई राज्य सरकारों ने अपनी राशि लगाकर खाद्य व सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का विस्तार किया है. उदहारण के लिए, झारखंड ने 2021-22 में जन वितरण प्रणाली में 15 लाख छूटे हुए लोगों को जोड़ने के लिए राज्य खाद्य सुरक्षा योजना लागू की एवं पेंशन योजनाओं का दायरा बढ़ाया, तमिलनाडु ने 2022 में विद्यालाओं में 1-5 क्लास के छात्रों के लिए मुफ्त नाश्ता शुरू किया, केरल ने आंगनवाड़ी में बच्चों को दूध और अंडा देने की इस वर्ष घोषणा की, अधिकांश राज्यों ने धीरे-धीरे अपनी ओर से पेंशन की राशि बढ़ाया आदि. लेकिन राज्य के सीमित संसाधनों में ऐसी पहलों की सीमा है. मजेदार बात है कि एक ओर केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार क्षेत्र पर लगातार हस्तक्षेप कर राजनैतिक-आर्थिक केन्द्रीकरण में लगी हुई है और दूसरी ओर कुपोषण व भुखमरी की लड़ाई में अपने हाथ समेट उसकी जिम्मेदारी राज्यों के ऊपर धकेल देती है.
देश में बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी की मार अधिकांश लोगों पर पड़ रही है. ऐसी परिस्थिति में भी केंद्र सरकार का ध्यान देश में व्यापक कुपोषण व भुखमरी को खतम करने के बजाय कॉर्पोरेट घरानों के कर्ज माफी, कंपनियों को सब्सिडी व टैक्स छूट देने एवं सरकारी सेवाओं के निजीकरण पर है.