महिलाओं का अपना घर नहीं होता. विवाह के पूर्व वह माता-पिता के साथ रहती है. विवाह के बाद पति के घर जाती है. उस घर को सजाती संवारती है. घर का काम करती है. अपनी इच्छा और अपनी पहचान छोड़ कर जीवन यापन करती है. लेकिन जब किसी कारण से कोई नाराजगी होती है, तो उसे बहुत ही आसानी से और बेरहमी से धक्के देकर घर से निकाल दिया जाता है. मैके का दरवाजा तो पहले ही बंद हो चुका होता है, थोड़े दिन के लिए शायद वहां उसे सहारा मिल जाये, पर शीध्र ही उसे समझाया जाता है कि उसका असली घर ससुराल है और उसे पति के घर लौट जाना चाहिए, भले ही उसे वहां प्रताड़ित किया जाता हो. इस तरह मैके और ससुराल दोनों जगह से फटकारी हुई लड़कियां आखिर कहा जायें?

गढ़वा की शांति हो या दिल्ली की श्रद्धा, दोनों को पति से तिरस्कार मिला. माता- पिता का सहारा न पा कर पति या प्रेमी के पास उन्हें लौटना पड़ा. शांति गायब हो गयी. श्रद्धा को मौत मिली. इसमें उनका क्या दोष था.

शांति का विवाह उसके पिता ने यूपी के मंझिगांव में मनोज सिंह के साथ किया था. जल्दी ही प्रताड़ना से तंग आकर वह मैके लौट गयी. जब पति उसे लेने आया, तो उसने साफ इंकार कर दिया. मनोज ने विवाह में खर्च हुए डेढ़ लाख रुपये वापस करने की मांग की. पिता के पास इतने पैसे नहीं थे, इसलिए उन्होंने पंचायत की इच्छा पर सहमति दे दी. गांव की महिला मुखिया ने सभी के सामने शांति को मारा पीटा और पति के साथ जाने का आदेश दे दिया. खबर है कि ससुराल पहुंचते ही वह लापता हो गयी. जाहिर है या तो उसे मार दिया गया या छुपा दिया गया. या फिर वह कहीं भाग गयी. वह जायेगी कहां? मैयके से तो कोई उम्मीद नहीं बची थी.

श्रद्धा वालकर मर्डर केश में भी श्रद्धा पिता की नाराजगी की शिकार हुई. आफताब के पास दिल्ली जाकर रहने लगी. छोटी-छोटी बातों पर दोनों में झगड़ा होने लगा और आफताब ने श्रद्धा को प्रताड़ित करना शुरु कर दिया. विवाह को लेकर झगड़ा हुआ तो आफताब ने गला दबा कर उसे मार डाला और उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिल्ली के जंगलों में फेंकता रहा. वह गिरफ्तार हो चुका है और उसने अपना जुल्म भी स्वीकार कर लिया है. आफताब से प्रताड़ित हो कर भी श्रद्धा पिता के पास लौट नहीं सकती थी.

इस घटना के बाद केंद्रीय मंत्री कौशल किशोर ने पढ़ी लिखी लड़कियों को लिविंग रिलेशनसिप में न रहने की नसीहत दी है. यह तो जले पर नमक छिड़कने जैसी बात है. हर हाल में लड़कियों को ही दोष दिया जाता है. छोटा कस्बा हो या बड़ा शहर, पढ़ी लिखी नौकरी करने वाली महिला हो या घर के अंदर रह कर घर संभालने वाली महिला, दोनों को ही सजा और मौत मिलती है. गलती करने वाले पुरुष को नहीं. आफताब का क्रूरतम व्यवहार हमें विचलित करता है. शांति की सरेआम पिटायी और उसके माता पिता तक का मूक दर्शक बने रहना दुखदायी है. कानून तो अपने स्तर पर काम करेगा, लेकिन पति या प्रेमी से प्रताड़ित महिला की जिम्मेदारी क्या मैके वालों की नहीं होगी? जब उसे मैके में सहारा मिलेगा और कहा जायेगा कि यह घर भी तुम्हारा है, तब शायद उसे पुरुष प्रताड़ना और मौत से बचाया जा सकता है.