जमाना बदल गया है और हमारे बच्चे भी. यह देखना हो तो बच्चों का स्कूली बैग देख लें. पहले बच्चों के बैग में गुटका, पान पराग जैसे चीजें होती थी, अब मोबाईल, शराब, लाईटर मिलने लगे हैं. यह मैं नहीं कह रही, बल्कि ऐसोसियेटेड मैनेजमेंट आॅफ प्राईमरी एंड सेकेंडरी स्कूल्स, कर्नाटक द्वारा सर्वें में आया है.

मोबाईल रखने की शिकायत पर कर्नाटक के स्कूली बच्चों के बैग का औचक निरीक्षण किया गया. स्कूल प्रबंधन एवं अभिभावक तक इन आपत्तिजनक चीजों के मिलने से चिंतित हो गये. लेकिन यह मानसिकता अचानक नहीं आयी है. दरअसल हम चाहते हैं कि घर में पैसा आये, लेकिन बच्चों की परवरिश पर ध्यान नहीं देते हैं. बच्चे मोबाईल पर वार्टसअप, फेसबुक के अलावा दूसरे तरह के ऐप्स का भी इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं. माता-पिता अपनी सुविधा के लिए छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में मोबाईल थमा दे रहे हैं. बाद में इसके दुष्प्रभाव को भी उन्हें झेलना होगा. यह खतरे की घंटी है.

दूसरे राज्यों के स्कूलों की भी कमोबेश यही स्थिति है. इन आधुनिक चीजों की लत से बच्चे किशोरावस्था को लांघ कर समय से पहले युवा हो रहे हैं. किशोरावस्था जीवन का एक नाजुक दौर होता है. इस अवस्था में लड़के-लड़कियां दोनों के शारीरिक और मानसिक परिवर्तन उन्हें संवेदनशील बनाते हैं. उनके जीवन में नये अनुभवों का द्वार खुलता है. आज परिवारों में संवादहीनता की स्थिति बन गयी है. मातापिता खुल कर बच्चों से सभी विषयों पर बात नहीं करते. मोबाईल ही बच्चों का मित्र बन गया है. उसी के द्वारा वे अपनी समस्याओं का समाधान ढ़ूढ़ते हैं. इस तरह बच्चे गलत रास्ते पर भी चल पड़ते हैं और माता पिता अनभिज्ञ रहते हैं.

यह तो स्कूल जाते बच्चों की बात है, जो बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं, उनको भी इधर उधर फेंके हुए सिगरेट के टुकड़ों को पीते हुए या शराब के बोतलों में बचे बूंदों को गटकते देखा जा सकता है. इस तरह के बच्चों के बारे में सोचने वाला भी कोई नहीं है. जैसे-जैसे हम नई सभ्यता-संस्कृति की तरफ बढ़ रहे हैं, हम बच्चों से उनकी मासूमियत भी छीन रहे हैं. बदलते सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिवर्तन के अनुकूल ढ़ालने में मशगूल माता पिता बच्चों पर पर रहे इस परिवर्तन के प्रभाव को पहचान नहीं रहे हैं. ऐसी स्थिति में बच्चों पर ध्यान देने का पहला दायित्व माता पिता पर है और उसके बाद स्कूल तथा समाज का है.

वर्षों पहले जब मैं एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थी तब स्कूल के प्रांगण में गुटके के पाउच देखे गये. तय यह हुआ कि सभी कक्षाओं के बच्चों के बैगों की तलाशी ली जाये. मैंने भी नवीं कक्षा के बच्चों के बैगों की तलाशी ली. मैंने बच्चों से कहा कि उनके बैगों में जो भी आपत्तिजनक चीजें हैं, उसे लाकर मेरी टेबल पर रख दें. बच्चे कुछ संकोच के साथ ही कुछ चमकीले पाउच टेबल पर लाकर रख दिये. मैंने छात्रों से पूछा कि इसे क्यों खाते हो तो कुछ लड़कों ने कहा कि चमकीले पाउच उन्हें आकर्षित करते हैं. किसी लड़के ने कहा कि भैया या पिताजी को खरीद कर खाते देख उसे भी इच्छा हुई. एक लड़के ने कहा कि दोस्त ने मस्त चीज कह कर उसे खिलाया. एक छात्रा ने रोते हुए कहा कि लड़के खा कर रैपर उसके बैग में डाल देते हैं.

यह तो वर्षों पहले की बात है, लेकिन बच्चे इसके बहुत आगे निकल चुके हैं. इसका परिणाम यही होता है कि बच्चे कभी-कभी डिप्रेसन में चले जाते हैं और आत्महत्या तक कर लेते हैं.