एक अजीब से दौर में जी रहे हैं हम. यदि आप चिल्ला कर नहीं बोलेंगे तो आपकी बात नहीं सुनी जायेगी. आपका मौन अनसुना रह जायेगा. उसे पराये तो नहीं सुनेंगे, अपने भी नहीं सुन पायेंगे. सुना जायेगा केवल शोर. पारसनाथ प्रकरण में यही बात उभर कर आयी है. वरना कौन नहीं जानता कि आदिवासी समाज के लिए पहाड़ पूजित है, ईश्वर स्वरूप है. न केवल संथालों के लिए, बल्कि मुंडाओं के लिए भी. नियमगिरि में बसे कंध आदिवासी नियमगिरी पहाड़ को ही अपना देवता मानते हैं. सबसे बड़ा पहाड़ तो ‘राताड़ बुरु’ यानि हिमालय है, लेकिन अपने गांव के आस पास का छोटा सा टीला भी उनके लिए पहाड़ ही बन जाता है. क्योंकि पहाड़ उनके जीवन का आधार है. जंगल, आखेट, बारिश, तरह तरह के जीव जंतु उन्हीं की बदौलत तो हैं. सभ्य समाज भले ही पहाड़ और जंगलों से डरे, आदिवासियों के लिए तो उनका आखिरी शरणस्थली रहा है सदियों से.
लेकिन उन्होंने कभी भी उसे अपनी बपौती नहीं मानी. किसी के लिए उसका द्वार बंद नहीं किया. आओ और उस विराटता के सामने अपनी क्षुद्रता का एहसास करो. लेकिन बहुत सारे लोग क्षुद्रता का एहसास मात्र नहीं करते, क्षुद्रता पर उतर आते हैं. ‘पारसनाथ’ पहाड़ को लेकर आज कल जो चल रहा है, उससे यही दिखाई देता है. वरना, जैनियों को कभी किसी ने रोका है कि वे पहाड़ के शिखर पर जायें, अपना मंदिर बनाये, उसे अपने महत्वपूर्ण तीर्थस्थल के रूप में चिन्हित करें और दुनिया के सामने पेश करें, लेकिन इस बात की कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन ऐसा आयेगा कि अपने तीर्थस्थल की पवित्रता के बहाने वे उस पूरे इलाके को ही उनके लिए प्रतिबंधित करवा देने की साजिश करेंगे, जिन्होंने इस इलाके में उन्हें प्रवेश का अवसर दिया.
इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि पारसनाथ पहाड़ को आदिवासी और खासकर संथाल आदिवासी सदियों से ‘जुग जेहार’ के रूप में पूजते आ रहे हैं. फागुन माह के पहले दिन हर वर्ष दूर-दूर से संथाल आदिवासी इस पहाड़ की चोटी पर इकट्ठा होते हैं और पहाड़ देवता की पूजा करते हैं. 1956 के हजारीबाग गजट में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि पारसनाथ पहाड़ की चोटी संथाल आदिवासियों का पुरातन पूजा स्थल रहा है. पता नहीं इस तथ्य का पता झामुमो के शीर्ष नेताओं और सलाहकारों को क्यों नहीं, जबकि उनके मुख्य वोटर संथाल परगना के संथाल आदिवासी ही है. उनके नेताओं के बयानों से यह तो पता चलता है कि वे जैन समुदाय के इस ‘तीर्थ स्थल’ की पवित्रता को लेकर तो बेहद संवेदनशील हैं, लेकिन आदिवासियों के अपमान को लेकर उनमें जरा भी चिंता या संवेदनशीलता नहीं. आखिर ‘मदिरा’ और ‘मांस’ खाने वालों के रूप में जैनी किसे चित्रित कर रहे हैं? सबको अपनी आस्था पर कायम रहना चाहिए, लेकिन पूरी दुनिया मांसाहार करती है और शराब का सेवन भी और इससे पवित्रता का कोई रिश्ता नहीं. यह खान पान की पद्धति है.
कुछ लोगों को लगता है कि झामुमो किसी राजनीतिक मजबूरी की वजह से ऐसा कर रही है. लेकिन बात इतनी नहीं. क्योंकि जैनियों की संख्या इतनी नहीं कि वे चुनाव को किसी रूप में प्रभावित कर सकें. हां, उनके पास अफरात पैसा जरूर है, क्योंकि इस धर्म को मानने वाले मुख्य रूप से व्यवसाय करते हैं. पूरे देश में उनकी आबादी कुल आबादी का .5 फीसदी के करीब है, जबकि आदिवासी 10 फीसदी के करीब हैं. और वैसे भी बिजनेस कम्युनीटि होने की वजह से वे भाजपा के समर्थक हैं. इसका मतलब राजनीतिक मजबूरी कुछ नहीं, बस आदिवासी भावना के प्रति संवेदनहीनता और उन्हें अपनी पार्टी का बंधुआ मानना ही वजह है.
यह अच्छी बात है कि आदिवासी समुदाय इस तथ्य को समझ रहा है और कई सामाजिक संगठनों ने 10 जनवरी को पारसनाथ की चोटी पर आदिवासियों को जमा होने का आह्वान किया है. अब भाजपा ने तो चुनाव को देखते हुए अपनी भूल सुधार ली, झामुमो समय रहते यदि इस तथ्य को नहीं समझेगी तो अपना परंपरागत राजनीतिक आधार कमजोर करेगी.