उम्मीद थी कि नया साल महिलाओं के लिए नई खुशियां, नई आशा और नया विहान लेकर आयेगा, लेकिन दिल्ली की घटना ने महिलाओं को फिर उसी खाई में पटक दिया जहां क्रूरता, हिंसा, अविश्वास और असमानता है. उनके लिए न पिछला साल सुखद रहा, न नये साल में कुछ अच्छा होने के आसार है.

दिल्ली में 1 जनवरी को अहले सुबह नशे में धुत्त चार युवकों ने कार से स्कूटी सवार दो लड़कियों को धक्का दिया और एक लड़की को धसीटते हुए 12 किमी ले गये और लड़की की दर्दनाक मृत्यु हो गयी. 2 जनवरी को दिल्ली के आदर्शनगर में दिन के एक बजे सुखविंदर नामक व्यक्ति ने अपनी प्रमिका को चाकू से गोंद डाला. लड़की अभी अस्पताल में हैं. 4 जनवरी को चान्हों, झारखंड में पढ़ने वाली एक लड़की को तीन युवकों ने अगवा कर गैग रेप किया और धमकी देकर भाग गये. 7 जनवरी को कोडरमा की नाबालिग बच्ची को तीन लड़के दिल्ली ले जाकर महीनों दुष्कर्म करते रहे. लड़की किसी तरह उनके चंगुल से निकल कर वापस घर आयी. अभी माह के मात्र एक सप्ताह बीता है, लेकिन औरतों पर अत्याचार की घटनाओं की बाढ़ आ गयी है.

पिछले कुछ सालों को देखें तो नैना साहनी तंदूर कांड, अनुपमा गुलाटी, श्रद्धा आफताब मामला तक इस तरह की घटनाओं की एक लंबी सूची बनती है. ये सभी घटनाएं यही सिद्ध करती हैं कि पुरुष जो अक्सर पति, प्रेमी, परिचित या अपरिचित होता है, वह महिलाओं पर किसी तरह जुल्म कर सकता है. छोटी से छोटी बात पर वह महिला की हत्या कर सकता है, प्रताड़ित कर सकता है, अपमानित कर घर से निकाल सकता है. यदि लड़की उसके प्यार को स्वीकार नहीं करे तो उस पर तेजाब फेंक कर उसे जला सकता है या चाकू से वार कर सकता है. दहेज प्रताड़ना, डाईन हत्या, भ्रूण हत्या आदि कुरीतियां तो अपनी जगह हैं, अब नये तरह के अत्याचारों का सिलसिला चल पड़ा है.

ओछी राजनीति करने वाले इन घटनाओं को धार्मिक और जातीय रंग देने का प्रयास करते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि अपराधी पुरुष का कोई धर्म नहीं होता है. सभी धर्मों के पुरुषों की मानसिकता एक जैसी होती है. पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था, लैंगिक भेद भाव, नारी विद्वेष, महिलाओं को नीचा दिखाने की मानसिकता है. विश्व स्वास्थ संस्था के सर्वेंक्षण बताते है कि तीन में से एक महिला अपने जीवन काल में यौन उत्पीड़न की शिकार होती है.

यह हमारी कमजोरी है कि हम लड़कियों का लालन पालन या शिक्षा की ऐसी व्यवस्था नहीं कर पाते हैं कि जिससे की वह खतरे को पहचान सके, खतरे के खिलाफ आवाज उठा सके और जरूरत पड़े तो कानून का सहारा ले सके. 

वैसे, लड़कियां अब सचेत हो रही हैं. विकासशील देशों में भी सड़कों पर अपने हक की लड़ाई लड़ रही है और जीत रही है. हिजाब के विरुद्ध लंबा संघर्ष इस बात का गवाह है. लड़कियों का चुप्पी तोड़ना ही हमे आशा दिलाती है कि रात कितनी भी हो, सबेरा हो कर रहेगा.