इस तथ्य को समझना होगा कि सरकार भाजपा की हो या झामुमो की, आदिवासी जमीन की लूट बंद नहीं होने वाली. भाजपा के लंबे शासन के दौरान जो अवैध कालोनियां बनी, बिना नक्शे के आदिवासी इलाकों में जो बहिरागतों के घर बने, वर्तमान सरकार उन तमाम घरों को नियमित करने जा रही है. किसी के जेहन में यह सवाल नहीं उठता और न किसी को इस बात से फर्क ही पड़ता है कि बिना नक्शा पास किये जो घर बने हैं, कम से कम यह तो जांच- पड़ताल का विषय है कि पांचवी अनुसूचि और विशेष भूमि कानूनों के रहते आदिवासी जमीन पर गैर आदिवासियों के घर कैसे बने? अभी भी ट्राईबल लैंड पर धड़ल्ले से बहिरागतों के घर बन रहे हैं. कोई शक हो तो मुख्यमंत्री आवास के पांच किमी के दायरे में ही किसी दिन घूम कर देख लीजिये.

इससे यह तो साफ है कि भाजपा की सरकार हो या खांटी झारखंडी सरकार, वे ट्राईबल लैंड की लूट या खरीद फरोख्त को रोकने में असफल रहे हैं. सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों है?

क्या पेसा कानून, पांचवी अनुसूचि या आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा के लिए अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे विशेष भू कानून में कोई कमी है? उन्हें और सख्त करने से क्या इसे रोका जा सकता है?

विडंबना यह है कि बिना इस सवाल को हल किये, कभी कानून को और सख्त बनाने की बात की जाती है, कभी सरकारों को कोसा जाता है. एनजीओ पोषित संगठनों में साल दर साल पेसा कानून को, ग्राम सभाओं को मजबूत करने की बातें बहस में चलायी जाती है.

इसलिए जरूरी यह है कि ट्राईबल लैंड की खरीद फरोख्त या लूट की वजह को ठीक से समझा जाये.

एक, खेती करने में लोगों की रुचि कम हो रही है. खास कर नई पीढ़ी की. सुदूर ग्रामीण इलाकों की बात छोड़ दी जाये, तो शहरों, कस्बों के बीच या उससे लगी जमीन पर खेती निरंतर कम लाभकारी प्रतीत होने लगा है. पर्यावरण में आया बदलाव, सिंचाई सुविधाओं में निरंतर ह्रास, बजार के बीजों पर निर्भरता आदि वे कारक हैं, जिसकी वजह से खेती अलाभकारी हो गयी है. वैसे भी खेती से खुराकी तो मिल जाती है, लेकिन नगदी नहीं.

दो, उपभोक्तावाद का दबाव दूसरा प्रमुख कारण है. जीवन अब उतना सरल नहीं रहा. आदिवासी युवा भी दो पहिया वाहन, मोबाईल, नये तर्ज के केश कट, कपड़े चाहते हैं. लेकिन इन सब के लिए पैसा चाहिए. और उनके पास पूंजी के रूप में एकमात्र पूर्वजों से प्राप्त जमीन है. वह आसानी से दलालों के चंगुल में फंस जाता है और अपनी जमीन बेचने के लिए अमादा हो जाता है. उसे इस बात की चिंता नहीं रहती कि जमीन एक बार हाथ से निकल गयी तो फिर जीवन यापन कैसे होगा. कुछ पढ़े लिखे युवक नौकरी की जुगत में लग जाते हैं और शेष उजरती मजदूर में बदल जाते हैं.

तीन, जमीन की दलाली बेहद लाभकारी है. इसमें अफरात पैसा है और इस अवैध कमाई के सभी हिस्सेदार बनते हैं. जमीन माफिया, उसके चेले चपाटी, स्थानी प्रशासन, छुठभैये से लेकर मंझोले-बड़े नेता. इसलिए आदिवासी जमीन की लूट बदस्तूर जारी रहती है. प्रशासन तंत्र और सत्ता में बैठे शीर्ष लोगों के पास इस बात की पूरी जानकारी रहती है कि जमीन के धंधे में किस इलाके में कौन सक्रिय हैं. वैसे लोग नेताओं की सरपरस्ती में ही अपना धंधा चलाते हैं.

चार, चूंकि जमीन को खरीदने वाला और जमीन बेचने वाला दोनों रजामंद होता है, इसलिए किसी जमीन पर अवैध निर्माण कोई मुद्दा ही नहीं बन पाता. जिसकी जमीन माफिया हड़प लेता है, उनमें से अधिकतर लड़ना नहीं चाहते. वे बस इतना चाहते हैं कि जमीन का कुछ पैसा उन्हें मिल जाये. क्योंकि आदिवासी अपने पक्ष के तमाम कानूनों के बावजूद कोर्ट कचहरी में जाना नहीं चाहता. स्थानीय स्तर पर नीचे के के कर्मचारी, अधिकारी उनकी कोई मदद नहीं करते.

यदि आप कोई और वजह जानते-समझते हैं तो कृपया बतायेंगे.