मानव तस्करी, खास कर आदिवासी लड़कियों की तस्करी बदस्तूर इस सरकार में भी जारी है. जरूरी नहीं कि हर बार उनका शारीरिक शोषण ही होता है, लेकिन उनके श्रम का अकूत शोषण तो होता ही है. दूसरे राज्यों में ले जाकर उन्हें अमानीय परिस्थितियों में रखा जाता है. उनसे कठोरतम श्रम कराया जाता है और श्रम की उचित मजदूरी नहीं दी जाती.

इस काम में कई गिरोह और कई प्रतिष्ठित संस्थाएं भी लगी हुई हैं और वे खुल्लम खुल्ला यह काम कर रही हैं. वे कौशल विकास के नाम पर युवा लड़के लड़कियों को कुछ प्रशिक्षण देती हैं और फिर उन्हें नौकरी दिलाने के नाम पर अन्य राज्यों में ले जाती हैं और काम पर लगाती हैं और उन्हें मिलता है अकुशल मजदूर से भी कम की मजदूरी. सरकार ने प्रावधान तो बनाया है कि जो लोग काम के लिए किसी अन्य राज्य में ले जाये जायेंगे, वे राज्य सरकार को इस बात की पूरी जानकारी देंगे कि वे उन्हें कहां ले जा रहे हैं. उन्हें वहां क्या मजदूरी मिलेगी आदि. लेकिन न तो सरकार के श्रम विभाग को इस बात में कोई दिलचस्पी है और न यहां से लड़कियों को बाहर ले जाने वाले इस बात की जानकारी सरकार को देते हैं.

सबसे चिंतनीय पहलू यह कि वे ले जाने के पहले किसी तरह का लिखित समझौता नहीं होता. सब कुछ मौखिक ही होता है. और इन्हीं परिस्थितियों में कभी-कभी शोषण और उत्पीड़न की कोई घटना जब अखबार की सुर्खी बनती है तो कुछ दिनों के लिए हाय तौबा मचती है. कभी किसी लड़की के दैहिक शोषण की खबर आती है. कभी उनके साथ क्रूरतम व्यवहार की.कभी उन्हें बंधक बना कर रखे जाने की.

रांची के डैम साईड में एक बड़ी बिल्डंग दिखती है जयपुर जाने के रास्ते. दीनदयाल उपाघ्याय कौशल विकास केद्र. नाम से ही जाहिर है कि यह संस्था भाजपा से जुड़े लोगों की है. जाहिरा तौर पर यह संस्था आदिवासी लड़के लड़कियों को तकनीकि प्रशिक्षण देने और उन्हें नियोंजित करने का दावा करती है. लेकिन उनकी गतिविधियां संदिग्ध दिखायी देती हैं.

सबसे पहले तो यही बात समझ में नहीं आता कि इस संस्था को ट्रायबल लैंड पर धान के खेतों के बीच विशाल भवन बनाने की अनुमति कैसे मिली? उन्होंने खेती के योग्य आदिवासी जमीन को भवन बनाने के लिए प्राप्त कैसे किया? खेतों के बीच खड़े उनकी इमारत को तस्वीर में देखिये. जितनी जमीन पर वह बनी है, वह तो गयी ही, उसके आगे पीछे की जमीन भी खेती योग्य नहीं रही.

इस संस्था में कौशल विकास के नाम पर सिलाई सिखायी जाती है. कंप्यूटर चलाने का प्रशिक्षण आदि भी. लेकिन प्रशिक्षण देने के बाद यह संस्था यहां से लड़कियों को काम दिलाने के लिए अन्य राज्यों में ले जाती है. कोई भी कहेगा, यह तो अच्छी ही बात है. सवाल यह उठता है कि यदि राज्य से कोई लड़की बाहर ले जायी जायेगी तो बेहतर मजदूरी के लिए ही न और इसके लिए कोई लिखित समझौता तो होनी चाहिए. लेकिन ऐसा संभवतः होता नहीं.

हाल में एक लड़की समीप की बस्ती से ही बाहर गयी. जाने के पहले मैंने उससे बात की और कई बातें पूछी. लेकिन उसका कोई माकूल जवाब नहीं मिला.

  • कहां जाने वाली हो? तमिलनाडु. मैम कहती हैं सात आठ हजार रुपये मिलेंगे. रहने के लिए जगह और खाना.

  • तमिलनाडु में कहां जा रही हो? अभी पता नहीं?

  • किसी तरह का लिखित समझौता हुआ है? नहीं.

  • तुम्हारे बाबा से उनकी बात हुई? नहीं, बाबा जायेगा तो मैम करेंगी.
  • वहां जाने के बाद मजदूरी नहीं मिली तो क्या करोगी? बहुत सारी लड़कियां गयी हैं.

दो दिन बाद पता चला कि वह चली गयी. जरूरी नहीं कि उसके साथ कोई बुरा ही हो. लेकिन उसके श्रम का शोषण तो होगा ही. अमूमन इस तरह बाहर जाने वाली लड़कियों को सात आठ हजार रुपये मिलते हैं. रहने, खाने, आने जाने का भाड़ा आदि की वसूली उनकी मजदूरी से ही किया जाता है. चूंकि विकसित राज्यों में मजदूरी की कीमत बढ़ गयी है और मजदूर मिलते नहीं, इसलिए पिछड़े राज्यों से लड़कियों को ले जाया जाता है. आदिवासी लड़कियां परिश्रमी होती हैं, कम से कम में भी खुश रहती हैं. सबसे बड़ी बात यह कि अपने राज्य में उन्हें वह काम भी नहीं मिलता.

जाहिर है, जो थोक के भाव उन्हें अन्य राज्यों में काम दिलाने ले जाते हैं, वे अपना कमीशन भी उसी से वसूलते हैं. उनके श्रम से अर्जित पैसे का ही एक हिस्सा. यानि, झारखंड के जल, जंगल, जमीन, खनिज संपदा की ही लूट नहीं हो रही, यहां के मानव श्रम की भी लूट और झारखंड की अपनी सरकार मूक दर्शक बनी हुई है.

पहले कौशल विकास केंद्र के बैनर पर रघुवर दास का फोटो लगा था, आज कल हेमंत सोरेन का. भ्रम यह होता है कि यह केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पोषित कोई योजना है. सवाल सिर्फ यह है कि राज्य के बाहर जाने वाली कुशल मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी क्या होनी चाहिए? क्या उन्हें बाहर ले जाने के पहले उनके साथ कोई लिखित समझौता होता है? अपने राज्य के बेटे बेटियों के लिए यह सरकार इन दोनों बातों को सुनिश्चित करेगी?