2000 के बाद कृषि का धंधा लाभकारी नहीं रहा. खेती के क्षेत्र में बड़े पैमान पर मशीनों के प्रयोग से मजदूरों को काम मिलना कठिन हो गया. नतीजतन ग्रामीण मजदूरों व छोटे किसान के परिवार के लोगों को अपनी रोजी रोटी के जुगाड़ में शहरों में जाकर अपने श्रम को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा. पलायन की इस स्थिति को रोकने के लिए फरवरी 2006 में देश के 200 जिलों में राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना की शुरुआत की गयी, जिसे 2008 में सभी जिलों तक विस्तरित कर दिया गया.

2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई तो प्रधानमंत्री ने 29 फरवरी 2015 को लोकसभा में मनरेगा का माखौल उड़ाते हुए कहा कि यह कांग्रेस की नाकामियों का स्मारक है. उन्होंने कांग्रेसियों पर निशाना साधते हुए कहा- ‘ मेरी राजनीतिक सूझ बूझ कहती है कि मनरेगा को कभी बंद मत करो. मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता हूं., क्योंकि मनरेगा आपकी विफलताओं का जीता जागता उदाहरण है. मैं गाजे बाजे के साथ इस स्मारक की ढ़ोल पीटता रहूंगा.’

लेकिन विपक्षी दलों की तीखी आलोचना व कोरोना महामारी से उत्पन्न भूखमरी के दबाव में मोदी सरकार को मनरेगा का वजटीय आवंटन बढ़ाना पड़ा. हालांकि 2020-21 के बाद इस रोजगार गारंटी योजना के बजटीय आवंटन को घटा दिया गया है. इस तालिका पर गौर करें-

मनरेगा का बजटीय आवंटन, करोड़ रुपये में:

साल आवंटन
2018-19 68,815
2019-20 71,667
2020-21 1,11,170
2021-22 98,000
2022-23 73,000

इस तालिका से स्पष्ट है कि पिछले साल की तुलना में मनरेगा के बजटीय आवंटन में 25000 करोड़ रुपये की भारी कमी की गयी है, जबकि सक्रिय कार्डधारकों को निर्धारित 100 दिनों का काम देने के लिए 2,64000 करोड़ रुपये के अवंटन की जरूरत थी. नरेगा संघर्ष मोर्चा के अनुसार मनरेगा के तहत 100 दिनों के काम देने की गारंटी के बावजूद औसतन केवल 16 दिनों का काम उपलब्ध कराया गया है. इसके अलावा मनरेगा के तहत मजदूरी की दर काफी कम है. पिछले सालों की 18350 रुपये की बकाया मजदूरी का भुगतान भी नहीं किया गया है. पता नहीं आगामी बजट में केंद्र सरकार मनरेगा का क्या करने वाली है.