जेपी ने अगस्त, 1977 में (सामयिक वार्ताय प्रधान सम्पादक - किशन पटनायक, 13 सितम्बर, 1977 के अंक में प्रकाशित इंटरव्यू) पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सार्वजनिक सलाह दी कि बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए उसे अपना विसर्जन करते हुए ‘जनता पार्टी’ के विविध संगठनों को अपनाना चाहिए या मुसलमान, ईसाई और अन्य गैरहिन्दू समुदाय के लोगों को अपना सदस्य बनाना चाहिए. जेपी ने यह जोड़ा कि “उनके संपर्क में आये नेताओं और कार्यकर्ताओं में अन्य सम्प्रदायों के प्रति वैरभाव नहीं देखा, लेकिन उनके अंतःकरण में ‘हिन्दू राष्ट्र’ में आस्था कायम है.”

जेपी ने आशा प्रकट की कि आरएसएस हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को त्यागकर भारतीय राष्ट्रवाद को मानेगा और भारत में रहनेवाले सभी लोगों को अपनाएगा. यह जेपी की तरफ से आरएसएस और सम्बद्ध संगठनों के प्रति असंतोष और निराशा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति थी.

आरएसएस की ओर से जेपी के सुझाव का प्रबल प्रतिवाद हुआ और विवाद का अध्याय शुरू हो गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से स्पष्ट ऐतराज जताते हुए सह सरसंघ चालक माधवराव मुले ने 23 सितम्बर, 1977 को जयप्रकाश नारायण को पत्र लिखा, जिसमे कहा कि

(1) जेपी को मीडिया को माध्यम बनाने की बजाय सीधे संघ-नेतृत्व से अपनी बातें बतानी चाहिए थीं.

(2) इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि जेपी को संघ के बारे में अधूरी जानकारियाँ हैं. यह मात्र युवाओं का संगठन नहीं है, इसमें सभी आयु.समूहों के लोग शामिल रहते हैं.

(3) हमें आपकी इस टिप्पणी पर सख्त एतराज है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हाल में ‘असाम्प्रदायिक’ हुआ है. आपको तो हमारे असाम्प्रदायिक चरित्र के बारे में बिहार अकाल के राहत कार्यों में प्रत्यक्ष अनुभव मिला ही था. संघ की ओर से रक्षाबंधन के पर्व के उत्सव में मुसलामानों और ईसाइयों को आमंत्रित किया जाता है और ईद के मौके पर मुस्लिम भाइयों को ईद की मुबारकबाद दी जाती है. इसी क्रम में आपने स्वयं स्पष्ट किया है कि छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी में भी मुसलमान कार्यकर्ताओं की अनुपस्थिति का कारण राष्ट्रीय प्रश्नों के बारे में हिचकिचाहट की मनोवृत्ति है. भूदान आन्दोलन और बिहार आन्दोलन में भी बहुत कम मुसलमानों ने भाग लिया. इसलिए इस बारे में जल्दीबाजी की बजाय धैर्यपूर्ण उपायों की जरूरत है.

(4) संघ के स्वयंसेवकों ने भ्रष्टाचार के विरोध में बिहार आन्दोलन में योगदान अवश्य किया और इमरजेंसी के प्रतिरोध में भी अगली कतार में थे. लेकिन यह संगठन मूलतः सत्ता की राजनीति से दूर रहकर अपने सदस्यों में भारतीय आदर्शों और मूल्यों का संवर्धन करने में संलग्न रहता आया है. आपने भी ‘राज्यशक्ति’ से ‘जनशक्ति’ को ज्यादा महत्वपूर्ण माना है. इस पृष्ठभूमि के कारण हम आपकी इस सलाह से विस्मित हुए हैं कि बदले हुए हालात में संघ को स्वयं को विसर्जित करके सत्ताधारी दल के विभिन्न मोर्चों से जुड़ जाना चाहिए.

(5) आपने हिंदू राष्ट्र की अवधारणा की बात उठायी है. हमारे लिए यह एक सांस्कृतिक न कि राजनीतिक आदर्श है. इसका मात्र यह आशय है कि आधुनिक समय की जरूरतों से सामंजस्य रखते हुए भारतीय आदर्शों और मूल्यों में आस्था के आधार पर राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न अंगों को पुनर्गठित किया जाना चाहिए. हमें भरोसा है कि यह निंदनीय नहीं हो सकता, क्योंकि आप भी महात्माजी (गांधी जी) और पूज्य विनोबा जी की भांति भारतीय संस्कृति के आराधक हैं. हम राजनीतिज्ञों में हिंदू शब्द के प्रति वितृष्णा को समझते हैं, क्योंकि उनकी निगाह मूल सत्य की बजाय सिर्फ तात्कालिक वोट तक सीमित होती है. लेकिन हमें भरोसा है कि आप वस्तुगत दृष्टि अपनाएंगे और निहित स्वार्थी तत्वों के आरएसएस विरोधी प्रचार को अनायास महत्व नहीं दें.

जेपी ने इस प्रतिवाद के सन्दर्भ में संघ के सर्वोच्च नेतृत्व से 30 अक्टूबर और 1 नवम्बर, 1977 को हुई वार्ता में पुनः अपनी बातों को दुहराया. इस प्रतिनिधिमंडल में मधुकर दत्तात्रेय देवरस के साथ छोटे भाई भाउराव देवरस, भावी सरसंघ चालक राजेन्द्र सिंह और अन्य वरिष्ठ नेता सम्मिलित थे. श्री देवरस ने इसका विवरण पत्रकारों को भी दिया. इसी बीच आरएसएस ने मार्च 1978 को नागपुर के जिला न्यायाधीश की अदालत में एक हलफनामा दाखिल करके इसको एक सांस्कृतिक धार्मिक कार्यों से जुडी संस्था मानने के निर्णय को चुनौती दी.

एक साल बाद जेपी ने 27 अगस्त, 1978 को जनता पार्टी और सरकार की कलहपूर्ण स्थिति पर एक सार्वजनिक वक्तव्य जारी करके फिर अपनी चिंता जाहिर की. जनता पार्टी सरकार के दो बरस पूरे होने पर जेपी ने 1 मार्च मार्च, 1979 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और जनता पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर को अलग-अलग पत्र लिखकर अपना मूल्यांकन और खुला असंतोष जाहिर किया. इन पत्रों में साम्प्रदायिकता और आरएसएस पर भी चिंताजनक बातें रखीं.

प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने 17 मार्च मार्च, 1979 को एक लंबा उत्तर भेजा. लेकिन जेपी को इससे कोई नयी उम्मीद नहीं मिली. 20 मार्च से 6 जुलाई तक स्वास्थ्य सुधार के लिए वे बम्बई के जसलोक अस्पताल में रखे गये. वहां भी उनकी चिंता बनी रही. (अप्रैल, 1979 में जमशेदपुर का भयानक दंगा हुआ, बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठकुर अपदस्थ किये गये.) 22 जून, 1979 को जेपी ने अटलबिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर हालात बेहतर बनाने के लिए प्रयास करने की अंतिम अपील की. फिर भी आरएसएस या जनसंघ घटक ने अनसुनी की. 8 अक्टूबर को जेपी का देहांत हो गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे सम्बद्ध संगठनों को सर्वधर्म सद्भाव की राह पर लाने का उनका सपना अधूरा रह गया.

इससे पैदा विवाद के सन्दर्भ में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने भी अप्रैल, 1979 के अंतिम दिनों में सरसंघ चालक देवरस को पत्र लिखकर स्पष्टीकरण माँगा कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राजनीतिक संगठन है? इस सन्दर्भ में अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा की गयी असफल कोशिशों का अपना इतिहास है.