“आज तो बाजार में झाड़ू की ऐसी-ऐसी किस्में आ गयीं हैं कि हमारा सभ्य समाज उन्हें सफाई के बजाय घर की सजावट की बेहतरीन चीज की तरह ज्यादा पैसा देकर खरीदता है, लेकिन सफाई करनेवाले समुदाय के माथे को और हाथ-पांवों को साफ रखने के लिए ऐसी चीजों के इस्तेमाल की सुविधा देने और इस पर पैसा खर्च करने को अनावश्यक मानता है।”

“और तो और, सफाई विभाग के कई पदाधिकारी ऐसी चीजों पर खर्च के मद में कटौती करते हुए यह मौखिक टिप्पणी करना अपना अधिकार मानते हैं कि ‘मैला ढोने वाले स्वीपर सबको ऐसे सामान दीजिएगा, तो एक दिन वो आपके माथे पर चढ़ जाएगा।”

“अब तो यूपी की एक सूचना ‘लीक’ हो चुकी है। यह सूचना अभी तक अप्रमाणित है, लेकिन बिल्कुल सही और दिलचस्प सूचना है। अप्रमाणित इसलिए है क्योंकि सरकार ने पिछले पांच बरसों में इसे गौरतलब माना ही नहीं। उल्टे सरकार ने इसे अपनी उपलब्धि के खाते में डाल रखा है। सरकार में सफाई कर्मचारी के सृजित एवं नियमित पद पर बड़ी संख्या में गैरदलित बहाल हैं।

इसे समाज का सवाल या समस्या के बजाय सरकारों ने अपनी उपलब्धि के खाते में डाल रखा है। सरकार में सफाई कर्मचारी के सृजित एवं नियमित पद पर बड़ी संख्या में गैरदलित बहाल हैं। बतौर सफाई कर्मचारी ये चतुर्थ श्रेणी के गैर-दलित कर्मचारी हैं - यानी यादव, राजपूत से लेकर ब्राह्मण तक। ये कर्मचारी दलित स्वीपर के समतुल्य वेतन पाते हैं। करीब 20-22 हजार रुपया मासिक। ये खुद कभी झाड़ू नहीं चलाते। अपने वेतन का दसवां हिस्सा देकर दलितों से दिहाड़ी मजदूरी पर सफाई का काम करवाते हैं। उनको 2000 से 2200 रुपया मासिक देते हैं यानी ये गैरदलित ‘मालिक’ नौकरी करते हैं और दलित ‘सेवक’ पेशा करता है। ऐसा करना अपराध नहीं माना जाता, क्योंकि न्यूनतम मजदूरी के सरकारी कानून के तहत सफाई के काम को ‘अंशकालिक’ करार देना ‘मालिक’ के हाथ में है। यूपी की सत्ता की नजर में सरकारी मालिक अच्छा और अ-सरकारी मालिक और अच्छा। उसने अंशकालिक काम की मजदूरी तय कर ही दी है - न्यूनतम 70 रुपया प्रतिदिन और अधिकतम 150 रुपया प्रतिदिन! सो ‘मालिक’ की नौकरी करनेवाले सफाई कर्मचारी के नियमित काम के लिए किसी दलित के हाथ में 70 से 150 रुपल्ली की दिहाड़ी मजदूरी धरा कर टरकाने के अधिकार से सम्पन्न हैं।

और, अब तो यह शोध का दिलचस्प विषय हो गया है कि सफाई की नौकरी करनेवालों की ओर से ठेके पर सफाई का काम करानेवाले ठेकेदारों में सिर्फ गैरदलित हैं या कोई दलित भी है? लेकिन इस पर शोध कौन करे, जब तक बुनियादी सवाल समाज या सरकार की देह में सुई-सा भी न चुभे?”

“आज सरकारी तंत्र में सफाई-प्रबंधन के ज्ञानकर्म में लीन कुछ प्रभु यह मान कर चलते हैं कि आजीविका के लिए खुद अपने या मल-मैल ढोने के काम में लगे समुदाय में से किसी के भी ‘माइंडसेट’ में कोई परिवर्तन की जरूरत नहीं। उनके लिए सरल उपाय यह है कि मल-मैल ढोने वाले समुदाय को छोटे-मोटे यांत्रिक कौशल-विकास का प्रशिक्षण दिया जाय। इसको आजकल ‘स्टार्ट अप इंडिया’ कहा जाने लगा है।”

“हाल में सरकारी अधिकारियों के निर्देश पर ऐसे ही कुछ ज्ञानकर्मी एक दलित समुदाय में सफाई के काम के सिलसिले में यांत्रिक-कौशल का प्रशिक्षण देने गये। उन्होंने यंत्रों की खासियत बताते हुए दलित समुदाय को समझाने की कोशिश की कि इससे सफाई का काम कितना आसान और आनंददायक होगा। लेकिन इस पर दलित समुदाय के एक कथित ‘बिगड़ैल’ दिमाग के युवक ने कहा - ‘जब इन सबसे सफाई का काम इतना आसान और आनंददायक हो जाता है, तो आप ज्ञानी समाज के लोग अपना टट्टी और गंदगी खुद क्यों नहीं साफ कर लेते? हमलोगों को दलित बनाये रखने में दिमाग क्यों खपाते हैं?’

इस पर आधुनिक सनातनी ज्ञानकर्मियों में से एक ने समझाया - ‘दिमाग न हो तो शरीर के उपयोगी अंग यानी हाथ-पैर भी गुलामी करते हैं।’

इस पर दलित समाज के एक अन्य युवक ने कहा - ‘हां, यह सही है, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि बिना हाथ-पांव का दिमाग सिर्फ गुलामी सोचता है और गुलाम बनाता है।’”

“बहरहाल, मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने और इसके लिए मैला ढोनेवाली आबादी की संख्या और पहचान सुनिश्चित करने के प्रयास आज भी जारी हैं। यह प्रयास इतिहास के बोझ से लदी परंपरा की उस गली में अटका हुआ है, जिसे आधुनिक हिंदू सभ्यता के स्वच्छ माहौल में रहनेवाले लोग बरसों पहले छोड़ आये हैं। मैला ढोनेवाली प्रथा खत्म करने के राजनीतिक और उससे ज्यादा यांत्रिक प्रयासों की अब तक की प्रगति इस ओर संकेत करती है कि हमारे देश के बौद्धिक समाज में ऐसे सवाल भी ‘गंदे और अस्पृश्य’ माने जा चुके हैं कि मानव-मैल ढोनेवाला मानव कैसा होता है, वह कहां रहता है, कैसे रहता है। लेकिन चमत्कार देखिए, हिंदोस्तान को ‘हिंदुस्थान’ बनाने को आतुर सत्ताग्राहियों ने इस मानव समाज को ‘लाभार्थी’ वर्ग बना दिया! इसके लिए सत्ताग्राही शासकों ने सत्याग्रह पर स्वच्छाग्रह का झाडू चलाकर सत्ता पर कब्जा जमाया। घर-घर शौचालय के नारे से वोट बटोरा। यूपी के ब्राह्मणवादी बुलडोजर ने दो साल पहले ही राज्य को ‘खुले शौच से मुक्त’ घोषणा से ‘महका’ दिया। घर-घर शौचालय के कागजी आंकड़े भी महकने लगे, तो मोबाइल शौच की महकती योजना दौड़ा दी। पाखाने की महक पर रोक लगाने के ‘लाभार्थी वोटरों के मुंह पर पैसे का फ्री मास्क चढ़ा दिया…!”

इतने में अचानक सभी स्क्रीन-स्लॉट्स पर अंग्रेजी में डेढ़ घंटी का शेड्यूल टाइम खत्म होने की सूचना आयी और वेबिनार के हर स्लॉट का वाकिंग-टाकिंग दृश्य स्टिल-फोटोग्राफ का दिलचस्प नमूना बन गया।