हमारे संविधान में सबको बराबरी का दर्जा हासिल है. लेकिन सामाजिक सोच की वजह से उस पर अमल नहीं हो पाता और धर्म के नाम पर भेदभाव होता दिखता है. कानून की वजह से उच्च शिक्षा की संस्थाओं में हर जाति-वर्ग का प्रतिनिधित्व दिखता है, पर साथ ही वहां भी भेदभाव साफ नजर आता है. देश के कई विश्वविद्यालयों में विभिन्न जातियों के लिए अलग-अलग हॉस्टल हैं. छात्र जाति, क्षेत्र और धर्म आधारित समूहों में बंटे हुए है.ं
धर्म के नाम पर किस तरह भेद भाव होता है, इसका एक उदाहरण हाल में देखने को मिला. इसकी शिकार एक आदिवासी लड़की हुई. दुखद बात यह हैं कि अगर शिक्षा के क्षेत्र में भेदभाव को अगर हम अभी नही समझते, तो इससे योग्य छात्र धर्म के नाम पर भेदभाव के शिकार हाते रहेंगेे, साथ ही सामाजिक वैमनष्य भी बढ़ेगा.
हाल में एक लड़की एक नर्सिंग संस्था में प्रवेश के लिए गयी थी, वहाँ पर फॉर्म भरा गया. उसके बाद टेस्ट हुआ. सभी मे वह सफल रही. उसके घरवाले यह उम्मीद किये की चलो अब हो जायेगा. लेकिन एडमिशन लेने से पहले कहा गया कि अंतिम चरण में इंटरव्यू होगा. उसके लिए भी उसने भरसक तैयारी की, परन्तु साक्षात्कार के नाम पर उससे यही सवाल किया गया कि कोन सा चर्च जाती हो. वो इस सवाल पर सोचने लगी कि ऐसा क्यों पूछा गया? फिर उसने जवाब दिया कि मै सरना हूँ, चर्च नही जाती.
उसके बाद वह रूम से बाहर निकल आई. सभी कोई रिजल्ट का इंतजार कर रहे थे. वह भी. पर अंत में एक सिस्टर आयी और बोली आप सरना है तो आपका यहाँ एडमिशन नही होगा.
निराश हो लड़की घर वालों के साथ वापस आ गयी. इसी तरह की एक अन्य घटना आईटीआई के एक आदिवासी छात्र के साथ एक साक्षात्कार में हुई थी. उससे भी पूछा गया था कि आप कौन सा चर्च जाते हैं. तो, उसका सीधा जवाब- सर, मैं मुंडा हूँ, चर्च नही जाता। हालांकि उसका एडमिशन उस संस्था में हुआ और उसकी पढ़ाई अब पूरी हो चुकी है. सवाल यह है कि इस तरह के सवाल साक्षात्कार के वक्त पूछे ही क्यों जाते है.
यह जरूरी नहीं कि सभी संस्थाएं धर्म या जाति के नाम पर भेद भाव करती ही हों, लेकिन इस तरह की बातें सामने आती ही रहती हैं और इस पर समय रहते रोक लगाने की जरूरत है. वरना सभी के लिए समान अवसर का अधिकार कागजी बन कर रह जायेगा.