इस तस्वीर को गौर से देखिये. यह पेट्रोल पंप पर गाड़ियों में पेट्रोल भरती एक लड़की की तस्वीर है. अपने शहर रांची में भी कांके रोड सहित अनेक मुख्य सड़कों पर अवस्थित पेट्रोल पंपों पर आपको आदिवासी मूलवासी लड़कियां पेट्रोल पंप पर काम करती मिल जायेंगी. यह तस्वीर तमिलनाडु के शहर कोयंबतूर की है. फर्क यह है कि वहां इसी काम के एवज में उन्हें कम से कम 10 हजार रुपये प्रतिमाह मिलते हैं, वहीं अपने राज्य में पेट्रोल पंप पर काम करने वाली लड़कियों को, जिनमें अधिकतर आदिवासी ही होती हैं, को अधिकतम 7 हजार रुपये प्रतिमाह मिलते हैं. मैं यह दावे के साथ इसलिए कह सकता हूं, क्योंकि हमारी पाठशाला वाली बस्ती की कई लड़कियां कांके रोड के पेट्रोल पंपों पर काम करती हैं और उनसे मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई है, जबकि कोयंबतूर वाली तस्वीर और वहां के पारिश्रमिक की जानकारी वहां की हाल की यात्रा में मिली थी.
मैंने इस बारे में इंडियन वायल के एक अधिकारी से कोयंबतूर में बात चीत की. उनका कहना था कि उनकी कंपनी की तरफ से पेट्रोल पंप में पेट्रोल भरने के काम के लिए न्यूनतम मजदूरी 12, 200 रुपया सुनिश्चित किया गया है. पेट्रोल ढ़ालने के अलावा कोई अन्य काम करने की मजदूरी उससे अधिक है. हालांकि पूरी मजदूरी वहां भी नहीं मिलती, एकाध हजार कम दिये जाते हैं.
मैंने उनसे यह भी पूछा की क्या अन्य राज्यों के लिए मजदूरी अलग है? उन्होंने कहा कि नहीं, यह पूरे देश की मजदूरी है.फिर झारखंड में पेट्रोल पंपों पर काम करने वाली लड़कियों को इतना कम पैसा- 6 से 7 हजार रुपये तक की मजदूरी कैसे दी जाती है? मंत्री, संतरी, तमाम अधिकारी, विभिन्न राजनीतिक दलों के पदाधिकारी कर्मचारी पेट्रोल पंपों से पेट्रोल भराते हैं. क्या उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है?
हेमंत सरकार राज्य के विकास के दावे करते रहते हैं. हर रोज रैली-सभाएं करते हैं. बहुत सी बातों के लिए केंद्र सरकार को दोषी भी ठहराते हैं. लेकिन क्या अपने राज्य में कामगारों को न्यूनतम मजदूरी मिले, इस बात की गारंटी भी नहीं कर सकते? ऐसा करने से झारखंड सरकार को कौन रोक रहा है?
और यदि राज्य में न्यूनतम मजदूरी की गारंटी नहीं होगी तो पलायन कैसे रुकेगा?