देश के विकास के रास्ते में सबसे बड़ा ‘स्पीडब्रेकर’ क्या है? ईमानदारी। बेईमानी से बड़ा स्पीडब्रेकर!

अब लगभग सब भारतीय - प्रभु और प्रजा - ईमानदारी को ‘पॉलिसी’ मानने लगे हैं। अंग्रेजी शब्द ‘पॉलिसी’ का ठेठ हिंदी माने है चालाकी या चतुराई। हिंदी में खाने और अंग्रेजी में पचाने की ऐतिहासिक परंपरा ने जिस अनुवादी हिंदी को अब तक कायम रखा था, उसमें ‘पॉलिसी’ की पवित्रता को समझाने के लिए हिंदी की ‘नीति’ शब्द को उसका पर्याय कहा जाता था। लेकिन अब नहीं। क्योंकि आम भारतीय भी समझ चुका है कि ईमानदारी अब उत्तरजीविता (सर्वाइवल) का मूल्य नहीं रही।

साधु समाज के इंतजार में, घर में पैठे शिकारियों से आत्मीय तरीके से ठगे जाने की बरसों लम्बी चुनाव-गाथा के वर्तमान गतिशास्त्र का संकेत यह है कि देश में चंद नासमझ लोगों यानी ‘आदतन ईमानदार’ वोटरों की संख्या तेजी से घट गयी है। दूसरों को बेईमान करार देकर अपनी ठगी को ‘जस्टीफाई’ करने वालों और इसे ही अपनी ‘बेसिक’ ईमानदारी का ‘सर्टिफिकेट’ बताने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ गयी है। यानी ‘वह बेईमान है, उसकी बेईमानी मेरी ईमानदारी का पैमाना कैसे बन सकती है’ जैसे सवाल से पीड़ित वोटरों की संख्या घट रही है। इनकी तुलना में ऐसे ‘निष्पक्ष’ (तटस्थ!) लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जिनके लिए ‘ईमानदारी’ में अब कोई ‘रस’ नहीं रहा। ईमानदारी शब्द अब दुपहिया ‘जीवनरथ’ पर सवार शक्तिहीन और डरपोक लोगों के सर चढ़े ‘हैलमेट’ जैसा भी नहीं रहा। वह ‘हैलमेट’ भी, जो बात-बेबात पर जुर्माना ठोंकने वाले ट्रैफिक पुलिस को चकमा देने के लिए पहना जाता है और जो दुर्घटना के वक्त सर को फूटने से बचाने के बजाय ऐसी क्षति पहुंचाता है कि ‘स्पॉट डेथ’ आसान हो जाता है।

दूसरी ओर अब भ्रष्टाचार में गजब का रोमांच - थ्रिल - भर गया है। 20वीं सदी तक आम समझ यह थी कि जब तक भ्रष्टाचार प्रकट नहीं होता, तब तक भ्रष्ट लोगों को समाज में साफ-सुथरा और ईमानदार माना जाए। लेकिन 21वीं सदी का नया पाठ यह है कि अगर भ्रष्टाचार का दाग दिखने लगे, तो उसे ‘काजल की कोठरी में सफेद कपड़े पहनकर रहने का नतीजा’ मानकर दुनिया कहती है दृ ‘वाह, दाग अच्छे हैं!’

अब तो यह किसी भी व्यक्ति से ऑफ रिकॉर्ड नहीं, बल्कि ऑन रिकॉर्ड सुना जा सकता है कि ईमानदारी से न समाज चल सकता है और न देश का संचालन किया जा सकता है। तब कोई क्यों ईमानदारी बरतने और ईमानदार दिखने के फेरे में रहें? ईमानदारी के फेर में रहे तो ‘विकास’ के रुक जाने का खतरा है! विकास के रास्ते में बेईमानी से बड़ा स्पीडब्रेकर ‘ईमानदारी’ है!

भ्रष्टाचार तो मौसमी बुखार जैसा है जो बाहर के वायरस के हमले से होता है, ये वायरस अच्छे से अच्छे और तंदुरुस्त लोगों को भी कभी न कभी पटक देते हैं। अब यह भी कोई बात हुई कि इससे निजात पाने के लिए इलाज के घरेलू नुस्खे की तरह ईमानदारी की माला जपें और ‘भ्रष्टाचार के बाहरी वायरस’ को जड़ से उखाड़ने का दिवास्वप्न पालते रहें? अरे भई, फटाफट कुछ लो, खिच-खिच दूर करो और काम पर चलो! निरोग होने के लिए निजी या सरकारी ‘अस्पताल’ के इलाज जैसी ईमानदारी के फेर में न पड़े रहो। आधुनिक ‘आईकॉन’ बने पॉलिटिकल व्यक्तियों से मैसेज ग्रहण करो और छोटी बेईमानी को बड़ी बेईमानी से काटने का कौशल सिखाने वाले ‘स्किल मैनेजमेंट संस्थान’ जैसे ‘हेल्थ-वेल्थ स्किल ट्रेनिग सेंटर’ में भर्ती होओ। वहां तुम स्वास्थ्य के साथ ऐसी प्रतिष्ठा अर्जित कर सकते हो कि देखने वाले वाह-वाह कर उठें।

कुल मिलाकर ईमानदारी का परिदृश्य यूं तो कविवर ‘धूमिल’ की चर्चित कविता की उस रोटी जैसा नजर आता है जिसे एक आदमी (अंतिम व्यक्ति) बेलता है, दूसरा आदमी (मध्यवर्ग) परांपरागत सामंतवादी शोषण का सरसों तेल या नवसामंतवादी शिष्टाचार का रिफयिंड ऑयल अथवा आधुनिक पूंजीवादी भ्रष्टाचार का घी चुपड़कर खाता-पचाता है, और एक तीसरा आदमी (राजनीतिक, प्रशासानिक और अन्य सत्ताओं से सम्पन्न प्रभुवर्ग) भी है जो न रोटी बेलता है और न खाता है, बल्कि सिर्फ उससे खेलता है।

लेकिन परिदृश्य में नोट करने लायक फर्क यह आ गया है कि देश में जो अब तक रोटी ‘बेलते’ थे, उनमें से कई-कई हाथ अब रोटी का जुगाड़ करने और खाने-पचाने में ‘टंच’ हो गये हैं और वे रोटी से खेलने वालों की जमात में शामिल होने की होड़ में हैं। वर्ग-जाति-मजहब-पद से जुड़ी सत्ता के घेरों में पड़े ईमानदारों को अपनी ईमानदारी का मलाल है और जिसने भी सत्य के पक्ष में खड़ा होने का साहस किया उसका बुरा हाल है। वह भी इसलिए नहीं कि ऐसे ईमानदारों को कोई नहीं पूछता। बल्कि इसलिए कि देश में उनको पूछने वाले ‘बहुते’ हैं, जो उन पर अफसोस करते हुए कहते हैं दृ “भाई जीध्बहन जी, आप जरूरत से ‘ज्यादा’ ईमानदार हैं।” और, इन ‘जरूरत से ज्यादा’ ईमानदारों को यह मालूम नहीं कि जरूरत भर की न्यूनतम ‘ईमानदारी’ क्या होती है? या कि न्यूनतम ईमानदारी जैसी भी कोई चीज हो सकती है!