2024 में लोकसभा चुनाव है, उसके बाद झारखंड का चुनाव. 27 फरवरी को रामगढ़ उपचुनाव की वोटिंग है. भाजपा चाहती है कि आदिवासी कुर्मी/ कुड़मी आपस में लड़ें. यह उनके राजनीतिक हित में होगा. कुर्मियों की आबादी सरकारी आकड़ों में 12 फीसदी और उनके नेताओं का दावा कि 20- 22 फीसदी. अब यदि 26 फीसदी आदिवासी और कुड़मी मिल कर रहें तो भाजपा के लिए मुसीबत हो जायेगी. इसलिए इस विवाद की लौ को हमेशा जलाये रखा जाता है.
अब रामगढ़ उपचुनाव को ही सामने रख कर देखें. यह कुर्मीबहुल क्षेत्र है. इसलिए कर्मियों के नवोदित नेता बन उभरे सुदेश महतो की पार्टी आजसू का इस पर कब्जा था पिछले कई चुनावों से. लेकिन जब वे भाजपा के साथ रह कर राजनीति करने लगे तो कुर्मियों का एक हिस्सा भाजपा के साथ हो गया. ठीक उसी तरह जैसे शिवसेना का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ हो गया.
इसलिए पिछले विधानसभा चुनाव में जब सुदेश महतो ने भाजपा का साथ छोड़ अकेले लड़ने का फैसला किया तो यह सीट आजसू गंवा बैठी. यहां से महागठबंधन जीत गया. अब यह बात भाजपा को भी समझ में आ गयी और सुदेश को भी कि दोनों मिल कर लड़ेंगे तभी महागठबंधन से मुकाबला कर सकेंगे. इसलिए उपचुनाव में दोनों साथ हो गये.
जाहिर है कि महागठबंधन के लिए अब यह सीट बहुत आसान नहीं. देखना दिलचस्प होगा कि इस बार इस सीट का क्या होता है. यह महागठबंधन को जाता है या भाजपा समर्थित आजसू प्रत्याशी को.
लेकिन यह किसी के पक्ष में जाये, भाजपा के लिए यह जरूरी है कि झारखंडी जनता के बीच सदियों से बना ताना बाना टूटे. आदिवासी और सदान एक रहें तो किसी भी बहिरागत पार्टी के लिए यहां चुनाव जीतना मुश्किल होगा. इसलिए राज्य में तरह-तरह के विवाद चलते रहते हैं. हिंदू-मुसलमान तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का स्थाई मसला है. इसके अलावा हिंदू-ईसाई विवाद, ईसाई आदिवासी बनाम सरना आदिवासी विवाद, और पिछले कुछ वर्षों से आदिवासी कुर्मी विवाद.
क्योंकि बहिरागत तो भाजपा के साथ हैं. उनमें भी कई तरह के जाति को लेकर वैमनष्य रहता है, लेकिन चुनाव के समय वे एकजुट हो कर छिटपुट अपवादों को छोड़ भाजपा के पक्ष में मतदान करते हैं.
वैसे, सामाजिक दृष्टि से प्रबुद्ध कुर्मी समाज के लोग भरसक भाजपा का शासन नहीं चाहते. वे इस तथ्य को समझते हैं कि भाजपा कारपोरेट की पोषक है. गरीब जनता की हितैषी नहीं. बावजूद इसके, जब आदिवासी कुर्मी विवाद तीव्र होता है तो उनके वश में बात रह नहीं जाती. कुर्मी जनता भाजपा के पक्ष में गोलबंद होने लगती है, ठीक वैसे ही जैसे सरना की राजनीति करने वाले धीरे-धीरे भाजपा के पक्ष में चले जाते हैं.
इसलिए जरूरी यह है कि जनता अब नस्ली और जातिवादी राजनीति से उपर उठ कर अपना हित देखे. भीषण महंगाई, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें, सांप्रदायिक हिंसा में लगातार होने वाली वृद्धि, मानवाधिकार का हनन, जल, जंगल, जमीन की लूट ज्यादा गंभीर मसले हैं. वरना झारखंडी जनता बहुत कुछ गंवा चुकी है, जो कुछ बचा है, वह भी गंवा बैठेगी.