समाचार पत्र की एक खबर ने ध्यान खींचा. खबर थी कि महिलाओं को हर माह माहवारी के लिये दो दिनों का वैतनिक अवकाश देने के लिये एक लोकहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई थी. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इस पर कोई निर्णय देने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि कोर्ट इस संदर्भ में कोई निर्णय नहीं दे सकती है. केंद्र और राज्यों को अपने यहाँ इसके लिये नीतियाँ बनानी चाहिये.
जनहित याचिका में याचिका कर्ता ने अपनी बात रखते हुए कहा था, कि कामकाजी महिलाओं को उनके पीरियड्स से जुड़ी तकलीफों के लिये दो दिनों के अवकाश का प्रावधान होना चाहिये. कुछ महिलाओं को माहवारी की पीड़ा की गहनता दिल के दौरे के पीड़ा के समान होती है. यह विशेष स्थिति महिलाओं की उत्पादकता को प्रभावित करती है, या दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी उत्पादकता को घटा देती है. भारत के कई राज्यों में, सरकारी, गैरसरकारी संस्थानों में इस वैतनिक अवकाश का प्रावधान है, लेकिन कुछ राज्यों में नहीं है.
कामकाजी महिलाओं को उनके कार्य स्थल पर एक समान अवसर प्रदान किये जाने चाहिये, चाहे वह किसी राज्य में, किसी भी संस्थान में काम करती हांे. याचिका कर्ता का यह भी मानना था कि महिलाओं को संविधान प्रदत ‘न्याय, समानता और स्वतंत्रता’ जैसे अधिकारों की रक्षा के निहितार्थ भी ऐसे निर्णय लिये जाने चाहिये.
कुछ दिन पहले 26 फरवरी 2021 को अहमदाबाद, गुजरात हाई कोर्ट ने निर्झरी मुकुल सिन्हा बनाम राज्य सरकार के केस में भी इसी तरह के दिशा निर्देश दिए थे. उस समय भी कोर्ट ने सुझाव देते हुए कहा था, कि सभी संगठित और असंगठित संस्थानों, राज्यों, केंद्र को अपने राज्यों में, संस्थानों में महिलाओं को होने वाले माहवारी की स्थिति में विशेष सुविधा प्रदान करनी चाहिये. इसके लिये हर संस्थान को अपने यहाँ एक दिशा निर्देश पारित करना चाहिये.
अपने इन निर्णयों में कोर्ट का यह मानना भी महत्वपूर्ण है, कि माहवारी के समय महिलाओं की स्थिति कुछ विशेष होती है, और उन खास समय में, उनकी विशेष देखभाल की जरुरत है. वैसे देखा जाये तो महिलाओं की माहवारी एक प्राकृतिक स्थिति है. लेकिन दूसरी तरफ उन विशेष परिस्थितियों में समाज द्वारा होने वाले व्यवहारों, सोच को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता.
पितृसत्तात्मक व्यवस्था में माहवारी के समय महिलाओं को अपवित्र मानते हुए उनके साथ अपमानजनक व्यवहार होता है. अपवित्रता का नाम देकर महिलाओं को अपमानित, एकाकी और दोयम बनाने की कोशिश की जाती हैं. जिन विशेषताओं के कारण महिलाओं को समाज, परिवार में विशिष्ट स्थान मिलना चाहिये था, उन स्थितियों में उसके अपवित्र होने के कारण, उनका भगवान को छूना अर्थात पूजा या अनुष्ठान का निषेध होता है.
रसोई, गौशाला में जाने, अचार छूने, परिवार के पुरुषों के सामने आने आदि पर प्रतिबंध, होता है. हर तरह के गृह कार्य से हटा कर उसे अकेले बंद कमरे में, परिवार के सदस्यों से दो दिनों के लिये दूर रहना पड़ता है. इन्हीं कुछ कारणों में सबरीमाला में स्त्रियों के प्रवेश पर प्रतिबंध भी है, जिसके लिये कुछ दिनों पहले आंदोलन भी हुए थे. अलग-अलग क्षेत्रों में इस संदर्भ में अलग प्रकार के निषेधात्मक नियम लागू होते हैं.
इन निषेधों के संदर्भ में भागवत गीता में एक प्रसंग आता है, जिसमें भगवान कृष्ण कहते है, कि महीने के चार दिनों में महिलाऑं को घरेलू या पारिवारिक कोई भी काम, पूजा पाठ नहीं करने चाहिये, क्योंकि उन दिनों में महिलाओं को आराम की जरूरत होती है. चाहे वो महिला ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो या वैश्य, या शूद्र ही क्यों न हो, अगर उन दिनों में महिलायें काम करती हैं, तो निश्चय ही वो नरक जाएंगी.
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को पढ़ते हुए मुझे अपने किशोरावस्था की बात याद आ गई, जब पहली बार मुझे माहवारी हुई थी. मैं अपने पापा की चहेती बेटी थी, लेकिन उस समय मेरी माँ ने मुझे बहुत सारी हिदायतों के साथ-साथ यह भी कहा कि अब मुझे पापा जी से दूर रहना चाहिये. उस समय यह हिदायत मेरे लिये एक अबूझ पहेली थी, जो आज भी अनसुलझी है. इन हिदायतों से उस समय मेरे मन में उठे भाव मुझे आज भी बखूबी याद हैं. मुझे महसूस हुआ था, जैसे मैंने कोई पाप किया हो, जिसकी सजा मुझे इस रूप में मिल रही है.
यह अकेले केवल मेरी सोच नहीं है, यह पूरे समाज की सोच है, जो महिलाओं पर उनकी माहवारी के संदर्भ में थोप दी जाती हैं. तो आज जरुरत अपनी किशोरियों को पहले से ही इन आने वाली परिस्थितियों के बारे में समझाने की है. उनके मन से इस संदर्भ में कोई डर, कोई कुंठा न हो, इस पर ध्यान देने की है. यह समझने की है कि माहवारी कोई ‘व्हिसपर’ कर कहने की नहीं, छुपाने की नहीं, महिलाओं की एक उम्र विशेष की प्राकृतिक अवस्था भर है.
और समस्या यही से शुरु होती है. क्या इस तरह की मानसिकता में पुरुषवादी राजसत्ता महिलाओं के हित महावारी के दिनों के अवकाश को लेकर कोई सर्वसम्मत कानून बनाने की पहलकदमी करेगी?