अयोध्याः दिव्य प्रभु खुद को ईमानदार सिद्ध करने के लिए वोटर जनता को समझा रहे हैं कि प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी कितना भ्रष्ट है। खुद को वनवासी ‘राम’ की प्रतिमूर्ति साबित करने के लिए वे कहते हैं कि प्रतिद्वंद्वी राक्षस-राजा ‘रावण’ है! आम परेशां वोटर दर्शक बनकर इस चुनावी नाटक का मजा ले रहे हैं, लेकिन कई वोटर, खासकर नये वोटर, जिन्हें फ्लोटिंग वोटर कहा जाता है, भ्रम और दुविधा में फंसे हैं।

क्षेत्र में आम और खास, पुराने और नये, सभी तरह के वोटर एक कॉमन फैक्ट से पहले से परेशान हैं। फैक्ट यह है कि क्षेत्र में कम्युनलिज्म और कास्टिज्म काफी महंगे दाम में बिक रहे हैं। कम्युनलिज्म माने साम्प्रदायिकतावाद और कास्टिज्म यानी जातिवाद, दोनों के दाम आसमान छूने लगे हैं।

यहां के पिछड़े समाजों में इसके खरीदार कम हैं। फिर भी इनकी कीमत घट नहीं रही। पिछले कई सालों से कम्युनलिज्म और कास्टिज्म के दाम आसमान से नीचे उतर ही नहीं रहे। और, अब इनका बाजार गर्म रखने के लिए दिव्य प्रभु और उनके भक्त ‘नॉलेज सोसाइटी’ से लेकर ‘विलेज मार्केट’ जैसे विज्ञापनों के माध्यम से इसका जोरदार प्रचार कर रहे हैं। ये दिव्य जन महाजन हैं। ये कम्युनलिज्म और कास्टिज्म साथ क्रिमनलिज्म (यानी अपराधवाद) और करप्शनलिज्म (भ्रष्टाचारवाद) फ्री बाँट रहे हैं।

डिमांड एंड सप्लाई की यह नयी थ्योरी है, एक माल खरीदो और साथ में दो माल फ्री ले जाओ। फ्री मिलनेवाले इन मालों से कम्युनलिज्म और कास्टिज्म के बीच एकाधिकारवाद की होड़ लगी है। चुनावी ‘बाजार’ में ‘बूम’ आ गया है। लेकिन हर तरफ से एक ही विज्ञापन की बमबार्डिंग चल रही है कि भौगोलिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद इन मालों के बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध हैं।

ज्यों-ज्यों वोटिंग का समय नजदीक आया, इस नजारे में कुछ तब्दीली आयी है। दिव्य प्रभु और प्रभु-भक्त अपने लाभ के लिए कम्युनलिज्म और कास्टिज्म का बीच के संबंधों के बारे में नया ‘नैरेटिव’ बांचने, बाँटने और बेचने में लग गये कि कम्युनलिज्म और कास्टिज्म एक दूसरे के दोस्त नहीं, बल्कि एक दूसरे के ‘दुश्मन’ हैं! जी हां, दोस्त नहीं, दुश्मन!

तमाम दिव्य प्रभु और प्रभु-भक्त कम्युनलिज्म और कास्टिज्म को इस ‘दिव्य ज्ञान’ के नये-नए पैकेजिंग में पेश कर रहे हैं। कुछ अमेरिकी मॉडल के रशियन स्टाइल में और कुछ रूसी मॉडल के अमेरिकन स्टाइल में। उदारीकरण के आज के दौर में अंदर के माल से ज्यादा इस पैकेजिंग का प्रोडक्शन कॉस्ट बैठ रहा है। सो नयी स्ट्रैटजी के तहत ‘आम जन की भाषा’ में वे जनता को समझा रहे हैं कि इसे कंज्यूम किये बिना देश की पुरानी सोच में बदलाव नहीं आ सकता। सोच बदले बिना देश में 21वीं सदी की तरक्की संभव नहीं।

कम्युनलिज्म बेचनेवाले कुछ दिव्य प्रभु करप्शनलिज्म को फ्री बांटते हुए अपने खरीदारों को समझा रहे हैं - कम्युनलिज्म से ज्यादा खतरनाक कास्टिज्म है।

कम्युनलिज्म तो एक विचार है। उसका क्षेत्र सीमित है। उससे वैचारिक स्तर पर लड़ा जा सकता है। कास्टिज्म दैनंदिन जीवन का व्यक्तिगत आचरण बनकर पूरे समाज के संस्कारों को गंदा कर देता है। उससे पूरा समाज लुट-पिट जाता है। लुटा समाज अक्षम-असहाय होगा ही। इसलिए पहले कास्टिज्म को उखाड़ फेंकना है।

कास्टिज्म बेचनेवाले कुछ दिव्य प्रभु करप्शनलिज्म को फ्री बांटते हुए कह रहे हैं - कम्युनलिज्म कास्टिज्म से ज्यादा खतरनाक है। कास्टिज्म व्यक्ति या समूह विशेष के आचरण से सम्बद्ध है। इसलिए उसे चेक किया जा सकता है। कम्युनलिज्म एक वाद-विचार है। वह तेजी से फैलता है और समाज को तोड़ देता है। इससे समाज की शक्ति खंडित होती है। इसलिए हमें पहले कम्युनलिज्म को बाहर करना है।

फिलहाल करप्शनलिज्म (भ्रष्टाचारवाद) में जारी प्रतिस्पर्धा से क्षेत्र में प्रभु-भक्तों के ‘टू इन वन’ खेमे में भीषण मारामारी चल रही है। इस मारामारी का विशेष पहलू यह है कि क्षेत्र में जो प्रभु भ्रष्टाचार के आरोप में फंसा है, वह खुद को निर्धन कह रहा है और जो कम्युनल छवि के लिए चर्चित है, वह खुद को ईमानदार बता रहा है।

इस दृश्य के ठीक उलट, क्षेत्र में जो वोटर-जनता धार्मिक होकर भी सेक्युलर है और गरीब हो कर भी ईमानदार है, स्तब्ध-चकित है। उसे यह कतई संभव नहीं दिखता कि जो कम्युनल या कास्टिस्ट या दोनों है, वह ईमानदार है, यानी करप्ट नहीं है। वह तो यह देख रही है कि जो प्रभु ईमानदार कास्टिस्ट है, वह करप्ट ताकतों से जुड़े बिना ‘अंधा’ है और जो प्रभु ईमानदार कम्युनल है वह करप्ट ताकतों के सहारा बिना ‘लंगड़ा’ है। और, जो ईमानदार प्रभु न कास्टिस्ट है और न कम्युनल है, वह आंख और पांव दोनों से लाचार है। वह न उठने के काबिल है और न देखने के।

क्षेत्र की वोटर जनता को यह दिव्य प्रभु-दृश्य पुरानी दिव्यांग लोककथा का नया पाठ जैसा लग रहा है। लोककथा में दो दोस्त थे - एक अंधा और एक लंगड़ा। यानी दोनों दिव्यांग। क्योंकि एक अंधा और दूसरा लंगड़ा था, इसलिए दोनों में दोस्ती ही हो सकती थी, दुश्मनी नहीं। सो वोटर जनता की पारम्परिक समझ यही है कि कम्युनलिज्म और कास्टिज्म के बीच ‘अंधे और लंगड़े’ जैसी दोस्ती होती है। वे एक दूसरे के दुश्मन हो नहीं सकते। समाज में दोनों में से कोई एक आग लगाता है, तो गरीब की झोपड़ी जलती है, उसका पेट जलता है और इसके साथ वह गरीब भी जल कर स्वाहा हो जाता है। तब अंधा-लंगड़ा दोनों एक दूसरे की मदद से बच निकलते हैं। आजादी के 75 साल का अनुभव भी यही है। कम्युनलिज्म और कास्टिज्म में से कोई एक जब-तब आग लगाता रहा है और देश के किसी न किसी कोने को तबाह करता है। फिर दोनों अंधे-लंगड़े की तरह एक दूसरे को सहारा देकर किसी और जगह आग लगाने निकल पड़ते हैं।

क्षेत्र की वोटर जनता यह न जाने कबसे देखती आ रही है। लेकिन, आजादी के इतने साल बाद भी वह यह जान नहीं पायी है कि कम्युनलिज्म और कास्टिज्म में कौन अंधा है और कौन लंगड़ा? जनता को सिर्फ इतना समझ में आया है कि कम्युनलिज्म और कास्टिज्म दोनों बहुरूपिये हैं। जब एक अंधा बनता है, तो दूसरा लंगड़ा बन जाता है। कुल मिलाकर दोनों अन्योन्याश्रित हैं। उनकी दोस्ती अटूट है! तो फिर वह किसे वोट दे?