अनेक न्यूनताओं के बावजूद झामुमो के पिछले पचास वर्ष का सफर शानदार रहा है. झारखंड के आदिवासीबहुल इलाकों से महाजनी प्रथा का नाश, कोयलांचल के माफिया संस्कृति का विनाश, पहले कौंशिल और फिर अलग राज्य और भाजपा के षडयंत्रों के बावजूद झारखंड की सत्ता तक का सफर बेहद रोमांचक रहा है. इस दौरान अनेक क्षेत्रीय संगठन बने और अपना वजूद खो बैठे या फिर भाजपा की गोद में जा बैठे, वैसे में झामुमो न सिर्फ मजबूती से खड़ी है, बल्कि देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी बन चुकी भाजपा को चुनौती दे रही है. अपने जमाने की ताकतवर झारखंड पार्टी, झारखंड आंदोलन के जमाने में दर्जनों राजनीतिक दलों, संगठनों के मेल से बनी समन्यव समिति, झामुमो की ही कोख से निकली आजसू, सबके सब अपना वजूद खो बैठे, लेकिन झामुमो बनी हुई है.
पिछले विधानसभा में झामुमो के नेतृत्व में ही महागठबंधन ने एनडीए को ऐसी बुरी शिकस्त दी की वे तोड़ फोड़ करके भी सरकार बनाने के काबिल नहीं रहे. चुनावी राजनीति में पराजय के बाद से भाजपा लगातार साजिशों में लगी हुई है कि इस सरकार को गिरा दिया जाये. तमाम सरकारी एजंसियां हेमंत सारेन के खिलाफ लगा दी गयी हैं. लगातार ईडी के छापे पड़ रहे हैं. यह वातावरण बनाने की कोशिश हो रही है कि सरकार आज गयी, कल गयी, लेकिन हेमंत सरकार बनी हुई है. षडयंत्र कैसे कैसे इसका एक ठोस उदाहरण तो निवर्तमान राज्यपाल का बंद लिफाफा रहा जिसे वे अंत तक खेल नहीं पाये. क्योंकि लाभ के पद वाले मामले में दायर मामला ही सिरे से गलत था. बस उनकी मंशा इतनी थी की इस हो हंगामें और अनिश्च के वातावरण में महागठबंधन में भगदड़ मच जाये. विधायक इधर-उधर भागें और इस सरकार का पतन हो जाये. महाराष्ट्र में शिवसेना जिस दबाव को झेल नहीं पायी, उस दबाव को झामुमो ने निष्प्रभावी कर दिया.
और वह संभव इसलिए हुआ कि झामुमो की बुनियाद संघर्ष और शहादतें रही है. दिशोम गुरु शिबू सोरेन का प्रचंड व्यक्तित्व रहा है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि झामुमो का जन्म महाजनी शोषण और माफियागिरी के के खिलाफ निर्णायक संघर्ष के दौरान हुआ और उसके गठन में कामरेड एके राय और विनोद बिहारी महतो जैसे महानायकों का योगदान था. सैद्धांतिक मतभेदों की वजह से कामरेड राय और शिबू सोरेन के रास्ते अलग हो गये और विनोद बिहारी महतो से भी शिबू सोरेन के मतभेद कई बार सतह पर आये, लेकिन झामुमो अपनी राह पर दृढ़ता पूर्वक चलती रही और आज अपने दम 30 विधानसभा सीटों पर जीतने वाली पार्टी है. और यदि सुदेश अपने समर्थकों के साथ भाजपा के दरबार में नहीं चले गये होते तो आज झारखंडियों को चुनौती देने का साहस कोई बहिरागत पार्टी नहीं कर पाती.
झामुमो अब संसदीय राजनीति में है और संसदीय राजनीति की अपनी सीमाएं हैं. इसलिए महागठबंधन सरकार से अपेक्षाएं भी हैं और जब वे नहीं पूरी होती हैं तो निराशा भी होती है. लेकिन उनके लिए इस सरकार को दोषी करार देना एक तरह की जल्दीबाजी होगी. आदिवासियों के लिए एक धार्मिक कोड एक राष्ट्रीय मसला है. जब तक विभिन्न राज्यों में बसे आदिवासी इस बारे में एक स्वर में मांग नहीं करते, तब तक यह होना मुश्किल है. इसी तरह नियोजन नीति में अडंगा सिर्फ राज्यपाल नहीं डाल रहे, कोर्ट भी सामान्यतः आदिवासी हितों के खिलाफ ही फैसले देता है, खास कर झारखंड हाईकोर्ट. नगड़ी वाले मामले में और लाॅ कालेज वाले मामले में हम कोर्ट की भूमिका को देख चुके हैं.
इसलिए फिलहाल इस बात से खुश रहिये कि आज जब बड़े-बड़े राजनीतिक दल अंबानी, अदानी जैसों के जेब में जा चुकी है, झामुमो अब तक कारपोरेट परस्त नहीं बनी और आतंकवाद का हौवा खड़ा नागरिक अधिकारों का राज्य में हनन नहीं हो रहा है जैस कि रधुवर राज में हुआ था.