रंग, रूप और भाषा के आधर पर एक नस्ल के लोगों की पहचान और दूसरे से उसके फर्क को रेखांकित करने की कोशिश होती रही है, लेकिन जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण के अंतर को जब तक नहीं समझा जाये, तब तक आदिवासी और गैर-आदिवासी समाज के फर्क को हम नहीं समझ सकते. जनविज्ञान ने संसार की सभी जातियों को रंग के आधार पर मुख्यतः तीन नस्लों में बांटा है. पहली नस्ल गोरों की है जिसे हम काकेसियन कहते हैं. दूसरी नस्ल मंगोलो की है जिनका रंग पीला होता है. तीसरी नस्ल काले लोगों की है. अन्य रंग इन्ही रंगों के मेल से बना है. लेकिन सिर्फ रंग के आधार पर पहचान करने की बात हो तो द्रविड़ों और आदिवासियों के रंग में एक तरह से समानता है, फिर भी दोनों की संस्कृतियों में बेहद फर्क है.

इसी तरह रूप के आधार पर विभाजन किया जाये तो अपने देश में चार प्रकार के लोग मिलते हैं. एक तरह के लोगों का कद छोटा, रंग काला, नाक चैड़ा और बाल घुंघराले होते हैं. ये संभवतः जनजातीय समुदाय के लोग हैं और जिन्होंने अपना ठिकाना जंगलों में बना रखा है. इतिहासकारों के मतानुसार ये द्रविड़ों और आर्यो के पहले से यहां आकर बसे थे. एक दूसरे किस्म के लोग वे हैं जिनका कद छोटा, रंग काला, सिर के बाल घने और नाक खड़ी और चैड़ी होती है. रंग और कदकाठी में ये आदिवासियों के समान दिखते हैं लेकिन वे आदिवासियों से भिन्न हैं और विघ्याचल के नीचे सारे दक्षिण भारत में ये फैले हुये हैं. ये द्रविड़ जाति के लोग हैं जो आर्यों के पहले इस देश में आये थे और नगर-सभ्यता की नींव इन्हीं लोगों ने डाली थी. तीसरी जाति के लोग आर्य हैं जिनका रंग गोरा या गेंहुआ होता है, कद काठी लंबी और नाक नोकीली होती है. लेकिन इस देश की उष्ण जलवायु और अन्य जातियों के वैवाहिक मिश्रण से उनका रूप रंग भी आज बहुत बदल गया है. और रंग रूप के लिहाज से चैथे लोग वे हैं जो वर्मा, असम, भूटान, नेपाल, उत्तर प्रदेश, उत्तर बंगाल और कश्मीर के उत्तरी किनारे पर पाये जाते हैं. इनका रंग पीला, आकृति चिपटी और नाक पसरी हुई होती है. ये मंगोल जाति के लोग हैं.

भाषा के लिहाज से भी मनुष्य समुदाय का वर्गीकरण किया गया है. डा. सुनीति कुमार चटर्जी का कहना है कि भारतीय जनता की रचना जिन लोगों को लेकर हुई है, वे मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं. औष्ट्रिक अर्थात आग्नेय, द्रविड़ और हिंद यूरोपीय. झारखंड में इंडो आर्यन ग्रूप की भाषाएं सदानी में बदल गयी हैं, द्रविड़ ग्रुप की भाषाओं से मिलती जुलती है कुरूक/उरांव और आस्ट्रिक ग्रुप में रखा गया है संथाली, मुंडारी, हो और खड़िया को. यानी, भाषायी दृष्टि से झारखंड के आदिवासी औष्ट्रिक जाति और औष्ट्रिक भाषा परिवार के सदस्य है. लेकिन इन वर्गीकरणों और विभाजनों के बाद हजारों वर्षों तक साथ रहने की वजह से एक मिली जुली संस्कृति बनी है, लेकिन इस मिली जुली संस्कृति से आदिवासी संस्कृति का मेल नहीं. इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया, उसी से हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति का निर्माण हुआ. बाद में जो भी आये, उन्होंने इस हिंदू संस्कृति को स्वीकार किया और उसमें समाहित हो गये, चाहे वे मंगोल हो, यूनानी, यूची, शक, अभीर, हूण और तुर्क हांे.

लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि आग्नेय परिवार के आदिवासियों ने उस हिंदू धर्म को कभी स्वीकार नहीं किया. यह अलग बात कि हिंदू समाज के लोग और खुद को हिंदू धर्म का पैरोकारा मानने वाले संघ परिवार के लोग आदिवासियों को, जिन्हें हाल तक वे वनवासी कहते थे, हिंदू साबित करने की हर चंद कोशिश करते हैं. लेकिन हिंदू समाज में वनवासियों की हैसियत क्या है, उसे हिंदू धर्म ग्रंथों में वर्णित कुछ कहानियों और मिथकों से समझा जा सकता है. हनुमान को वनवासियों का पूर्वज बताते हुये उन्हें राम का परम सेवक होने का दर्जा दिया गया है. है वह सेवक ही. सूर्यवंशी आर्यपुत्र राम के चरणों में बैठने और वक्त बे वक्त उन्हें कंधे पर लाद कर घूमने वाला सेवक. महाभारत की कथा के अनुसार एक आदिवासी युवक एकलव्य ने कौरवों और पांडवों के गुरू द्रोणाचार्य से धनुर विद्या सीखनी चाही तो उन्होंने सिखाने से तो इंकार कर ही दिया, अपने कौशल और लगन से उसने धनुर विद्या सीख ली तो कही वह उनके शिष्य अर्जुन से प्रतिस्पर्धा न करने लगे, इसलिये गुरू दक्षिणा में उससे अंगूठा ही मांग लिया. आज भी तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासी समाज से कुर्बानी मांगी जाती है और अपनी बलि देने से इंकार करने पर उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है, जिस तरह कलिंगनगर, ओड़िसा, और तपकारा, झारखंड, में हुआ. कलिंगनगर में वे अपनी जमीन पर टाटा कंपनी का कारखाना बनने का विरोध कर रहे थे जहां पुलिस फायरिंग में बारह आदिवासी मारे गये. इसी तरह झारखंड राज्य गठन होने के बाद कोयलकारो परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों पर तपकारा में पुलिस फायरिंग हुई जिसमें सात आदिवासी और एक मुसलमान मारा गया.

दरअसल रंग-रूप और भाषा की खाई को तो पाटा जा सकता है, लेकिन कुछ ऐसी बातें होती हैं जिन्हें पाटना मुश्किल होता है. मसलन जीवन के बारे में हमारा दृष्टिकोण, प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते आदि. आदिवासियों और गैर आदिवासियों के जीवन दृष्टि के फर्क को हम कुछ ठोस उदाहरणों से समझ सकते हैं.

  • ईश्वर की कल्पना किसी न किसी रूप में सभी धर्मावलंबी करते हैं. गैर आदिवासी समाज ईश्वर की कल्पना सगुण रूप में एक सुपुरूष के रूप में करता है. राम, कृष्ण या विष्णु आदि अलौकिक शक्तियों से संपन्न पुरूष हैं. ईश्वर का निर्गुण रूप भी मानवीय गुणों से ही संपन्न है. जबकि आदिवासी प्रकृति पूजक होते हैं. वे पहाड़, जंगल, जंगल के किसी वृक्ष मात्र को पूजते हैं. किसी आदिवासी गांव में मंदिर नहीं होता. उनके देवता जंगल, पहाड़ों में निवास करते हैं और उनका पूजा स्थल भी वहीं होता है.

  • पूरी हिंदू सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था वर्णाश्रम धर्म पर टिकी हुई है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, उसके चार भाग हैं. ब्राह्मण पुजारी-पुरोहित और शिक्षक होता है, क्षत्रिय के हाथ में शासन व्यवस्था, वैश्य के जिम्मे वानिकी और व्यापार तथा शूद्र के जिम्मे सबों की सेवा करना, सभी तरह का मानवीय श्रम करना. हिंदू धर्मावलंबी और विद्वान इस व्यवस्था को उचित ठहराते हुये यह सफाई देते हैं कि यह मूल रूप में जड़ व्यवस्था नहीं थी. लेकिन वास्तविकता यह है कि दलित घर में जन्म लेने वाला पीढ़ दर पीढ़ी दलित और अछूत ही माना जाता है. आदिवासियों में यह वर्ण व्यवस्था नहीं.

  • आदिवासी समाज श्रम आधारित समाज है और गैर आदिवासी समाज दूसरे के श्रम के शोषण पर टिका समाज और सामाजिक व्यवस्था. खुद रिक्शा खींच कर जीवन यापन करना करना श्रम आधारित समाज की रचना करता है. जब कोई दो चार दस रिक्शा दूसरे से खिंचवा कर यही काम करता है तो कहा जायेगा कि वह दूसरे के श्रम के शोषण पर टिका है. गैर आदिवासी समाज का भी एक बड़ा हिस्सा कृषि व्यवस्था पर टिका है, लेकिन वहां जमीन का मालिक वैसा व्यक्ति भी हो सकता है जो खुद खेती नहीं करता हो. पूरे उत्तर भारत में कृषि व्यवस्था दिहाड़ी मजदूरों पर टिकी हुई है. आदिवासी समाज में ऐसी कल्पना ही नहीं की जा सकती.

  • पूरी गैर आदिवासी व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों पर टिका है. विकास के लिये जरूरी है अतिरिक्त उत्पादन और मुनाफा. कुछ लोगों के श्रम से उनकी जरूरत से अधिक कृषि क्षेत्र में उत्पादन हुआ तभी मानव जाति के विकास का रास्ता खुला. कुछ लोग अन्य कार्यों में लगे जिससे विभिन्न पेशों और सभ्यता संस्कृति का विकास हुआ. अब कुछ लोग पठन-पाठन का कार्य कर सकते थे, शोध का कार्य कर सकते थे. कुछ लोगों ने लड़ने भिड़ने में ही महारत हासिल की. कुछ लोग नृत्य और गीत में ही प्रवीण हुये. कुछ लोग सिर्फ दलाली कर के जी सकते हैं. इस व्यवस्था की विडंबना यह हुई कि इसमें शारीरिक श्रम की कीमत सबसे कम आंकी गयी और इस लिये श्रम करने वाले को निकृष्ट माना गया. खेत में काम करने वाला, चमड़े का सामान बनाने वाला, कपड़े बुनने वाला- ये सभी दलित हैं और आर्थिक दृष्टि से भी सबसे अधिक विपन्न.

आदिवासी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य/मुनाफा के सिद्धांत का पूरी तरह निषेध करता है. वह उतना ही उत्पादन करता है जितनी की उसे जरूरत है. वह कल की चिंता नहीं करता और इसलिये प्रकृति का उतना ही दोहन करता है जिससे उसका नुकसान न हो. परिवार के सदस्य अपने हाथ से खेती करते हैं. कुछ ऐसे काम जो अपने बलबूते नहीं हो सकता, मसलन रोपनी का काम, तो इस काम में एक दूसरे की मदद करते हैं. लेकिन यह कल्पना करना कि कोई अपनी पूरी जमीन बटाई पर दे रखी हो, इस समाज में हाल तक कठिन था. और चूंकि अतिरिक्त उत्पादन की गुजाईश नहीं, इसलिये सभी को श्रम करना है. कोई पाहन, पुरोहित हो सकता है, लेकिन इस वजह से उसे मुफ्त में खाने का अवसर नहीं मिल जाता.

  • गैर आदिवासी समाज में सभी में थोड़ी बहुत वनिक बुद्धि होती है. यानी जोड़ -तोड़, हिसाब किताब करना. कल की चिंता और उसके लिये संचय. इसलिये गैर आदिवासी समाज का कोई भी सदस्य ‘धंधा’ कर सकता है. यह अलग बात की कोई ज्यादा प्रवीण होता है कोई कम. लेकिन आदिवासी समाज का संपन्न से संपन्न व्यक्ति ‘धंधा’ नहीं कर सकता. संपन्न होने के बावजूद महाजनी नही कर सकता.

  • सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था के इस अंतर का प्रतिफलन कलाओं के क्षेत्र में भी हुआ है. गैर आदिवासी समाज में रंगमंच होता है और दर्शक दीर्घा / प्रेक्षागृह, कलाकार और दर्शक. लेकिन आदिवासी समाज में इस तरह का विभाजन नहीं. पीड़ा और उल्लास के क्षणों की भी सामूहिक अभिव्यक्ति होती है जिसमें सभी भागिदार होते हैं. फसल कटने के बाद चांदनी से भरपूर रात्रि में नाचते वक्त आदिवासी समाज का हर औरत - मर्द कलाकार बन जाता है. दूसरी तरफ यदि कोई अच्छा बांसुरी बजाता है तो वह उसका अतिरिक्त गुण तो है लेकिन इस वजह से उसे इस बात की छूट नहीं कि वह अपने खेत में काम न करे.

ये कुछ आदिवासी और गैर आदिवासी समाज तथा उनकी संस्कृति में अंतर करने वाली बातें हैं. इन्हें और भी सूत्राबद्ध करने की जरूरत है.