चुनाव-युद्ध का मौसम आ गया. लोकतंत्र का पारा गरम हो उठा. प्रभु मुखर हैं! वही किंग, वही किंगमेकर. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आर्मी खम ठोंक वोटरों के बीच दहाड़ने लगी - “पोजीशन भी प्रभु, अपोजीशन भी प्रभु. सत्तापक्ष भी वही, विपक्ष भी वही. प्रभु ने अपना ‘दुश्मन नम्बर वन’ फिक्स कर लिया है. प्रभु का दुश्मन आपका दुश्मन! इसलिए - खामोश! अब आप बहस में टाइम वेस्ट नहीं कीजिए.”

चैक-चैराहा तरह-तरह के विज्ञापनों से पटा है. आती-जाती सड़कों की ओर मुखातिब डिजिटल बोर्ड ऊंचे खम्बे पर लगे हैं. जिनके परदे पर प्रभु के रंग-बिरंगी मुद्राओं के दृश्य चल रहे हैं. दौड़ रहे हैं! उनको देख वोटर ‘थ्रिल्ड’. रोमांचित - हैं! खास कर, यह देख कि प्रभु के चेहरे पर, उसने अब तक जो किया उसके प्रति कतरा भर भी ‘पश्चाताप’ नहीं, प्रायश्चित करने का भाव तो कतई नहीं!

‘थ्रिल्ड’ के कई मायने एक साथ दृष्टिगोचर हो रहे हैं! एक माने यह कि कई वोटर काँप रहे हैं, और कई सिहर रहे हैं! जो उत्तेजना में काँप रहे हैं वे कुछ बोल नहीं रहे, सिर्फ चिल्ला रहे हैं गूंगों की तरह. जो सिहर रहे हैं उनमें कई की बोलती बंद और कई यह भूल गये कि वे भी मुंह में जुबान रखते हैं! कई वोटर इस एहसास में घिर कर डिप्रेशन में डूब गये हैं कि उन्होंने अब तक जो जिया उसे प्रभु ‘अकारथ’ नहीं, बल्कि ‘गुनाह’ साबित करने पर तुले हैं!

प्रभु कहीं-कहीं ताल ठोंक कर गरजने लगे हैं. “हमारे ‘लक्ष्य’ और ‘मकसद’ के बीच या ‘कथनी-करनी’ के बीच के औचित्य-अनौचित्य पर बहस की गुंजाइश नहीं! हमने भूत में जो अभूतपूर्व किया वह सबूत है कि भविष्य के लिए क्या हमारे दिल में है और अब तो, देखना है जोर कितना बाजु-ए कातिल में है..!” वह प्रतिद्वन्द्वी प्रभु पर बरस रहे हैं- “भूत मांगे सबूत? हम सपूत हैं - साक्षात सबूत हैं, तो प्रत्यक्ष को प्रामण क्या!”

सो जहां-तहां प्रभु और प्रजा के बीच भी गूंगों-बहरों के सम्वाद जैसे दृश्य-परिदृश्य नजर आ रहे हैं. इनको कवर करते मीडिया में ‘जन संपर्क’ एवं प्रचार के ‘विज्ञान’ और ‘कला’ पर बहस छिड़ गयी है. सौ साल पुराने इतिहास के फ्रेम में बंधे दृश्यों पर वर्तमान परिदृश्यों को सुपर इम्पोज कर मीडिया यह जांच-परख कर रहा है कि नया दृश्य पुराने दृश्य के फ्रेम में कितना फिट आ रहा है और कितना बाहर हो रहा है? दृश्य के जो अंश फ्रेम के बाहर होते दिख रहे हैं, उन्हें काटना-छांटना और पब्लिक डोमेन में लाना या न लाना पत्रकारिता के पुण्य-प्रताप को कितना बढ़ाएगा? इतिहास पर वर्तमान’ को और ‘वर्तमान पर इतिहास’ को सुपरइम्पोज करने में व्यस्त मीडिया नये झंझट में फंस गया है.

यूं उसकी नजर में सौ साल से चला आ रहा कम्युनिकेशन का यह सूत्र आज भी बिल्कुल क्लीयर है कि प्रजा भेड़ों का एक झुंड होती है, जिसका नेतृत्व करना होता है. प्रजा की सोच प्रभु द्वारा निर्धारित होती है, जिस पर प्रजा ‘विश्वास’ करती है. इस विश्वास के लिए प्रभु ‘जन चेतना’ को मैनिप्यूलेट करते हैं. प्रजा की बुद्धि को मैनिप्यूलेट करने का रास्ता यह है कि विशेष प्रकार की सूचना प्रभावी ढंग से परोसी जाए, जो उसके मन में बैठ जाए. प्रभु द्वारा विज्ञापन, वैज्ञानिक आंकड़ों, चयनित इतिहास के उदाहरणों के माध्यम से नित सप्लाई किये जानेवाले फार्मूलों से प्रजा की सोच निर्धारित होती है. इन फार्मूलों से जनता के मैनिप्यूलेट होने की संभावनाएं परिणाम के रूप में प्रकट होती हैं.

लेकिन पिछले सौ सालों में भारत की ‘गंगा’ की तरह दुनिया की कई नदियों के काफी मीठे ‘पानी’ बहे और समुंदर के नमकीन पानी में विलीन हुए. हर देश में अपनी-अपनी नदियों को लेकर ‘राम तेरी गंगा मैली हो गयी, पापियों के पाप धोते-धोते’ टाइप के गीत गूंजे. कई देशों में ऐसे गीत आज भी ‘हिट’ हैं. कई देशों में नदियाँ मिट गयीं, तो ऐसे गीत ‘मिट’ गये और कई देशों में नदियाँ इतनी साफ कर ली गयीं कि ऐसे गीत मिट गए. साफ नदियों के देशों में आजकल जो गीत गूंजते हैं, उनसे भारत का एक पुराना फिल्मी गीत याद आता है - “होठों पे सचाई रहती है, जहां दिल में सफाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है!”

सो लोकल मीडिया ‘अंगरेजी शब्द ‘मैनिप्यूलेशन’ के ग्लोबल नैरेटिव के चक्कर में उलझ गया है. उसे प्रभु की ट्रोल आर्मी के जवाब का इंतजार है. भारतीय भाषाओं और खासकर हिन्दी में मैनिप्यूलेशन के कई-कई पर्यायवाची शब्द हैं. आगामी चुनाव-युद्ध में मैनिप्यूलेशन का कौन-सा पर्यायवाची शब्द चलाया जाए? कौन-सा शब्द हिट होगा और कौन-सा फ्लॉप होगा? कौन-सा शब्द अपने एक्चुअल अर्थ से प्रभु के रीयल अर्थ को छिपाएगा और कौन-सा शब्द अपने रीयल अर्थ से प्रभु के एक्चुअल अर्थ को उभारेगा? हस्तलाघव कि हस्तकौशल? चालाकी या कि चालबाजी या धोखेबाजी? जोड़ा-तोड़ या हेरा-फेरी? मीडिया इसी सवाल के पीछे सवाल और सवाल के आगे सवाल. सवाल के अन्दर सवाल और सवाल के बाहर सवाल जैसे झंझटिया सवाल में फंस गया है.

इस बीच जब से चुनाव-प्रचार में ‘चैकीदार’ और ‘चोर’ शब्द के परमुटेशन-कॉम्बिनेशन से जन-चेतना को मैनिप्युलेट करने की मुहिम तेज हुई है, तब से इतिहास पर वर्तमान को और वर्तमान पर इतिहास को सुपरइम्पोज करने का मीडिया-चैनलों का धंधा भारी मुश्किल में भी पड़ गया है. वे क्या करें? घर के रहें कि घाट के? ‘माया’ का जाप करें कि राम का? यूं इस धंधे में अस्त-व्यस्त कई मीडिया चैनल मस्त भी हैं. उनके धंधे की रफ्तार इतनी तेज है कि उन्हें खुद अपनी आवाज सुनने की फुर्सत नहीं! वे इतनी तेज गति से ‘राम-राम-राम..’ गा रहे हैं कि पब्लिक इसे ‘मरा-मरा-मरा’ सुन रही है - इसका भी उन्हें भान नहीं!