हमारा आदिवासी-मूलवासी समाज दिनों दिन राजनीतिक रूप से प्रबुद्ध हो रहा है. अपने हितों को पहचान रहा है. उसके लिए संघर्षरत भी है, लेकिन नितांत निजी हितों से इतर भी देश दुनियां में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे जानना-समझना जरूरी है और उन मुद्दों के लिए लड़ना भी. ऐसा ही एक मुद्दा है लोकतंत्र/जनतंत्र/ डिमोक्रेशी. क्यांकि यदि देश में यही नहीं रहेगा तो उन मुद्दों के लिए हम लड़ भी नहीं सकेंगे, जो हमारे लिए आज बेहद जरूरी हो गया प्रतीत होता है.

ज्यादा दिन नहीं हुए हैं रधुवर दास की भाजपा सरकार के. किस तरह का भयावह दौड़ था. गोड्डा में अदानी की पावर प्लांट के अधिकारियों और ब्यूरोक्रैशी ने मिल जुल कर किस तरह गोड्डा में पावर प्लांट के जमीन अधिग्रहण के लिए खड़ी फसल को रौंद डाला, किस तरह खूंटी में पत्थलगड़ी आंदोलन को कुचला गया, कैसे-कैसे प्रपंच रच कर हजारों हजार निर्दोष आदिवासियों पर देशद्रोह का मुकदमा दार कर खौफजदा किया गया.

जनता ने गोलबंद हो कर उस सरकार को उखाड़ फेंका. उसके बावजूद एक निर्वाचित सरकार को अपदस्थ करने के लिए कैसे-कैसे षडयंत्र चलते रहते हैं? क्या राज्य में भाजपा और राज्यपाल ने वैसा वातावरण रहने दिया है जिसमें कोई सरकार स्थिर हो कर विकास का काम कर सके? देश के संघीय ढ़ाचे की धज्जियां उड़ा कर राज्यों के सारे अधिकार छीन लिये गये हैं. निर्वाचित सरकार के प्रतिनिधियों को केंद्रीय एजंसियों के द्वारा डराया-धमकाया जा रहा है. रोज छापे पड़ रहे हैं. ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है कि उनके अलावा सभी चोर हैं.

तरह तरह के ऐसे मुद्दे सामने ला खड़े किये गये हैं, जिनसे झारखंडी एकता तार-तार हो. आर्थिक मुद्दे कहीं पीछे ढ़केल दिये गये हैं. कभी धर्म से जुड़े मुद्दे, कभी जाति व समुदाय के मुद्दे. गौर से देखिये इन मुद्दों को. कही उनसे झारखंडी एकता तो कमजोर नहीं हो रही? उनके रहनुमाओं पर गौर कीजिये, कहीं वे सांप्रदायिक ताकतों के हित में तो सक्रिय नहीं?

क्या आपको यह बात शर्मसार नहीं करती कि हमारे राज्य की एक बड़ी आबादी अब सरकारी राशन, वृद्धा पेंशन और अन्य मिलती जुलती सरकारी योजनाओं पर जिंदा रहने के लिए निर्भर है. राज्य की एक बड़ी आबादी जिनमें बड़ी संख्या बेटियों की भी है, जीवन यापन के लिए राज्य से पलायन कर रही है?

हम और हमारे साथी जब भी किसी संगोष्ठि में बैठते हैं तो यह मुद्दा सामने आता है कि पेसा कानून तो बन गया लेकिन नियमावली नहीं बनी. लेकिन यदि राज्य सरकार ऐसा नहीं कर रही तो झारखंडी जनता ने इसके लिए आंदोलन कर दबाव भी कहां बनाया जा रहा है? नये वन कानून कानून के तहत कई राज्यों में वन भूमि पर बसे आदिवासियों मूलवासियों को जमीन का पट्टा मिला. झारखंड में स्थिति खराब है. क्या आपको नहीं लगता कि इन बुनियादी सवालों पर आंदोलन और संघर्ष निरंतर कम होते जा रहे हैं. वैसे मुद्दे प्रभावी हो गये हैं जिनसे पता नहीं लाभ कितना होगा, लेकिन झारखंडी एकता निरंतर खंडित हो रही है और इसका असर आने वाले लोकसभा और फिर विधानसभा के चुनावों पर पड़ेगा. याद रखिये कि हेमंत सरकार भले ही जन आकांक्षाओं पर पूरी तरह खड़ी नहीं उतरी हो, लेकिन उन लोगों की सत्ता में वापसी बेहद खतरनाक होगी जिनका कारपोरेट घरानों से गहरा रिश्ता है और जिनके दिल में लोकतंत्र के प्रति रत्ती भर आस्था नहीं.