आज स्त्री और स्त्री जीवन से जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से विचार करना समय की अनिवार्यता है. शिक्षा के बढ़ते चरण के साथ समाज में महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया है. आज विभिन्न सरकारी, गैरसरकारी संस्थानों में कार्यरत स्त्रियों के अलावा वे बड़ी संख्या में हर क्षेत्र में काम कर रही हैं. इन कामकाजी स्त्रियों को कार्य स्थल पर कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. मालिकों, बॉस या सहकर्मी द्वारा किया जाने वाला अभद्र (अश्लील ) व्यवहार एक बड़ी समस्या है.

संविधान प्रदत्त अधिकारों के तहत हर नागरिक को समानता का अधिकार एवं गरिमापूर्ण तरीके से जीवन जीने का अधिकार हासिल है. लेकिन व्यवहार में समाज संविधान से नहीं चलता. परंपरा, जो पुरुष प्रधानता पर टिकी है, से संचालित है. नतीजतन स्त्रियां अक्सर इन अधिकारों से वंचित रह जाती है. काम के दौरान उनके साथ प्रायः अभद्रतापूर्ण व्यवहार होता है और वे विरोध या शिकायत भी नहीं कर पाती हैं. क्योंकि उनमें साहस का अभाव होता है, क्योंकि उनको बचपन से दब्बू बन कर रहना सिखाया जाता है. भोगवादी संस्कारों के कारण अतः ज्यादातर लोगों (पुरुषों) की सहानुभूति इन मामलों में स्त्रियों के प्रति नहीं होती. आमतौर पर कोई स्त्री शिकायत करती हैं तो सबसे पहले लोग उसमें ही खोट ढूँढने लगते हैं, क्योंकि हमारे समाज की स्थापित मान्यता के अनुसार अच्छी स्त्रियां मुंह नहीं खोलती हैं. कुछ महिलाएं विरोध करने की हिम्मत भी करती हैं तो अपना भविष्य और कैरियर दाँव पर लगा कर ही करती हैं. कोर्ट कचहरी के चक्कर और साथ के लोगों का निरुत्साहित करने वाला व्यवहार, उसके मनोवल को तोड़ कर रख देता हैं. वैसे भी सहकर्मियों के असहयोग के कारण अपने साथ हुए अभद्र व्यवहार को प्रमाणित करना उनके लिए मुश्किल हो जाता हैं.

आम तौर पर समाज भी ऐसी महिलाओं का साथ नहीं देता है. इस धरना के कारण भी कि घर की चारदीवारी से बाहर कोई स्त्री निकलेगी तो यह सब उसे झेलना ही पड़ेगा. कई बार तो लोग यह भी सोचते है कि बाहर निकलने वाली स्त्री यह सब कुछ चाहती भी हैं. सामाजिक आर्थिक रूप से कमजोर स्त्रियां ही न केवल इन अमर्यादा पूर्ण व्यवहार की शिकार होती हैं, बल्कि कई बार तो यह देखा गया है कि उच्च पद पर कार्यरत स्त्रियां भी अपमानजनक व्यवहार झेलती हैं. रूपल बजाज और केपीएस गिल का उदाहरण हमारे सामने हैं. सच यही है कि औरतों के साथ अभद्र व्यवहार करने को हमारा समाज बहुत गंभीरता से लेता ही नहीं है.

मगर कार्य स्थल पर कामकाजी महिलाओं के साथ ऐसे व्यवहार से न केवल स्त्री की गरिमा खंडित होती हैं वरन काम का माहौल भी प्रभावित, प्रदूषित होता हैं. इन बातों को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय में दाखिल विशाखा बनाम राजस्थान राज्य के केस के संदर्भ में अगस्त 1997 में उच्चतम न्यायालय ने एक दिशा निर्देश पारित किया था. कार्य के सम्बन्ध में महिलाओं की क्षमता की व्याख्या करते हुए एवं सभी पक्षों को सुनने के बाद उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होनेवाले यौन उत्पीड़न को समाप्त करने के प्रयास किये जाने चाहिए.

समस्या यह थी कि भारतीय दंड संहिता में यौन उत्पीड़न शब्द परिभाषित नहीं हैं और न कार्य स्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न को रोकने का कोई विधान हैं. अतः उच्चतम न्यायालय ने स्त्रियों के साथ उनके कार्य स्थल पर होने वाले दुर्व्यवहार, यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए सभी सरकारी और गैरसरकारी प्रतिष्ठानों के कार्य स्थलों को परिभाषित करते हुए, उनको दिशा निर्देश देते हुए उसके अनुपालन तथा मानदंड निर्धारित करने का निर्देश भी दिया. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद के तहत न्यायालय के इन दिशा निर्देश तथा मानदंड को दंड और कानून माना जायेगा और यह संगठित तथा असंगठित दोनों क्षेत्रों पर लागू होगा.

राष्ट्रीय महिला आयोग ने उच्चतम न्यायालय के विशाखा केस में दिए गए दिशा-निर्देश के अनुसार कार्य स्थल पर महिलाओं की गरिमापूर्ण स्थिति के लिए एक आचार संहिता बनाई तथा उसे सरकार के सभी मंत्रालयों एवं विभागों में भेजा, ताकि सभी लोग इस आचार संहिता से अवगत हो सकें और इसका अनुपालन हो. साथ ही गैर सरकारी संगठनों, सभी राज्य महिला आयोगों को, निर्धारित क्षेत्र के शीर्ष निकायों तथा मीडिया कर्मी को इसकी प्रतियाँ भेजी गयी. इस आचार संहिता का पालन हो रहा है या नहीं इसकी निगरानी समय- समय पर करने का दायित्व महिला आयोग ने स्वयं लिया. साथ ही यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए एक नियोजक भी तैयार किया गया. यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि जब तक विशाखा मामले में कोई कानून नहीं बनता, उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया निर्देश एवं निर्णय ही कानून हैं.