गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय के राजनीतिक विभाग का लोकतंत्र पर शोध के नतीजों के अनुसार दुनिया की सत्तर प्रतिशत आबादी तानाशाही में रहती है. इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में लोकतंत्र की स्थिति निराशाजनक है. अब लोकतंत्र 1989 के स्तर पर वापस आ गया है.
2012 में जब दुनिया मे 42 उदारवादी लोकतंत्र थे, उस समय कानून का शासन था. नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा पूर्णरुप से होती थी. लेकिन 2021 के आते- आते दुनिया में उदार लोकतंत्र की संख्या घट कर 38 हो गई. इसका अर्थ यह हुआ कि दुनिया की आबादी का केवल 13 फीसदी ही लोकतंत्र में रहती है.
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में विश्व राजनीति का परिदृष्य आदर्श स्थिति में था. पहली बारं दुनिया में लोकतंत्रों की संख्या अधिनायकवादी राज्यों से अधिक हो गई थी. उदारवादी लोकतंत्र की संख्या 98 थी, तो 80 देश तानाशाहों के आधीन थे. ज्यादातर देशों में लोकतंत्र की बहाली का मुख्य कारण नई सूचना प्रौद्योगिकी, वैश्वीकरण तथा मजबूत आर्थिक स्थित थी. लेकिन यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रही. 2019 तक आते आते संयुक्त राज्य अमेरिका में वित्तीय संकट पैदा हुआ और इसने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाया. परिणाम यह हुआ कि अर्थ व्यवस्था में सुधार के नाम पर कई देशों में सरकारें नागरिकों के अधिकारों तक को सीमित करने लगीं. कुछ लोगों ने इसीलिए इसे लोकतांत्रिक मंदी कहा. अब लोकतांत्रिक देशों की संख्या 87 हो गई और तानाशाही देशों की संख्या 92 तक पहुंच गयी.
अब सवाल यह उठता है कि अति आधुनिक दुनिया में जहाँ मनुष्य अपनी आजादी को सर्वोपरि मानता है, उसमें तानाशाही कैसे जीवित रह सकती है. सबसे पहले तो हमें तानाशाही के अर्थ को समझना है. रोमन गणराज्य में इस शब्द की उत्पत्ति हुई. उस समय किसी आपातस्थिति को सम्भालने के लिए किसी नेता को सभी तरह के अधिकार देकर उसे शक्तिशाली बनाया जाता था, जो अस्थाई होता था.
लेकिन अब इस शब्द का प्रयोग किसी भी गैर लोकतांत्रिक सरकार के लिए प्रयोग किया जाने लगा है. यह अधिनायकवाद का पर्याय बन गया है. एक लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों द्वारा चुना जाता है. देश के सभी वयस्क स्त्री पुरुष मतदान करते हैं. इस तरह चुने हुए प्रतिनिधि सरकार बनाते हैं और लोकहित में काम करते हैं, लेकिन अब ऐसे लोकतंत्रों में भी किसी एक दल के कुछ व्यक्तियों के समूह के द्वारा नागरिक अधिकारों का हनन करने या उसको सीमित करने तथा संविधान में परिवर्तन लाकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करते देखा जा रहा है.
‘स्पिन डिक्टेटर’ नामक पुस्तक के अनुसार लोकतंत्रों में अधिनायकवादी प्रवृति का उदय राजनेताओं की इस समझ से बनी कि सत्ता में बने रहना है तो लोगों में भय पैदा करना जरूरी है. इसके लिए मिलटरी जनरल की तरह वर्दी पहनने की जरूरत नही है, बल्कि सूट- बूट या खादी का कुर्ता पैजामा पहनकर भी किया जा सकता है. एक बलवान शासक सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपने हाथ में रखता है. गलत सूचनाएं देकर लोगों को मूर्ख बनाता है और जरूरत पड़े तो पुलिस और सेना उसके हाथों में ही होती है. वह देश की बौद्धिकता को नष्ट कर देता है या बुद्धिजीवियों को जेल में डाल कर सारे विरोधों को समाप्त कर देता है. .
बीसवीं सदी के तानाशाहो की कार्यशैली मे अंतर था या विविधता थी, लेकिन उनकी अधिकांश विशेषताएं समान थी. जैसे विपक्ष को दबाना, सभी तरह के संचार साधनों पर नियंत्रण, आलोचकों को पीडित करने, एक विशेष विचारधारा को प्रचारित करते रहना भी उनका काम होता था. वह विचार राष्ट्रप्रेम या किसी धर्म विशेष को लेकर भी हो सकता था, जो देश की अधिकतम जनसंख्या को भाता हो. सूचना और प्रसार पर नियंत्रण आदि के द्वारा निरंकुश शासक चाहता था कि लोग डरंे. इस तरह की विशेषताको को लिए हुए आधुनिक तथाकथित लोकतंत्रों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, इसलिए कहा जा रहा है कि लोकतंत्र खतरे में है.