वादीः ब्रो, देश में लोकतंत्र और पूंजीवाद में कौन किस के बल पर जिंदा है?
संवादीः बंधु, पिछले आठ साल में सवाल ही बदल गया है. अब मुख्य सवाल यह है कि कौन किसका जनक है, और कौन किसकी सन्तान है? देश में चालू ‘बाजार की राजनीति’ और ‘राजनीति के बाजार’ की पक्की दोस्ती का मैसेज एक ही है कि लोकतंत्र का जनक पूंजीवाद था, है और रहेगा. ‘लोकतंत्र’ को इसी शर्त पर जीने का हक है कि वह माने कि वह अपने विकास के बारे में कुछ भी सोचे-करे, लेकिन किसी भी हालत में ‘पूंजीवाद’ को क्षति न पहुंचाए. उसके खिलाफ बंदूक उठाने के पहले उसे यह बोध हो कि यह बेटे द्वारा बाप पर बंदूक उठाने जैसा है.
वादीः लेकिन ब्रो, देश-दुनिया में जहां भी लोकतंत्र है, वहां के गरीब-गुरबा के लिए पूंजीवाद खूंखार ‘राक्षस’ बन गया है. कोई बेटा अपने बाप को राक्षस बनता देख कर भी चुप कैसे रहे?
संवादीः बंधु, लोकतंत्र में पूंजीवाद को राक्षस कहने के लिए सब स्वतंत्र हैं, लेकिन इसके साथ यह भी तो साफ दिख रहा है कि अपनी तमाम क्रूरताओं के बावजूद पूंजीवाद का राक्षस विश्व के लगभग सभी मानव समाजों और सभ्यताओं को लुभाता है, उसके भविष्य की कल्पनाओं में उम्मीदों के नये-नये रंग भरता है.
इसलिए लगभग सभी देश और समाज मान चुके हैं कि पूंजीवाद के सहारे के बिना ‘विकास’ संभव नहीं है. कुछ देश-समाज तो पूंजीवाद पर इस कदर आसक्त हैं कि वे उसी पर पूर्णतः निर्भर हैं और कहते हैं- ‘हम तो उस पर निसार हैं, वह है तो हम हैं, वह नहीं रहेगा तो हम भी नहीं रहेंगे. वह जुदा हो गया तो हम भी फना हो जाएंगे.’
अब यह आकलन करना भी संभव नहीं कि आर्थिक उदारीकरण के बाद से ‘दुनिया’ कितनी तेजी से कितना बदल गयी? जिस ‘ग्लोबलाइजेशन’ से विश्व चकित-चमत्कृत है, उसने अपने ताप से मानवीय विकास के किस-किस मूल्य-चिंतन को पिघला दिया? उसने अब तक भारत के ‘ग्लोबल’ चिंतन और प्रक्रिया को कैसे-कैसे झटके दिये? उसने देश के चेहरे को कितना विकृत किया या अपने हित में इस्तेमाल के लिए उसे सजा-संवार कर विश्व-बाजार में किस तरह पेश किया?
अब तो मुख्य सवाल यह हो गया है कि ग्लोबलाइजेशन और टेक्नोलॉजी में आयी क्रांतिकारी उछाल से जुड़ी ‘विकास’ की नयी और चमत्कृत करनेवाली अवधारणा को कोई किस रूप में और किस हद तक स्वीकार करे?