19 वीं सदी के अंत तक कुड़मियों की गणना सिड्यूल ट्राईब के रूप में ही होती थी, लेकिन 1929 के बाद वे उस कोटि से बाहर हो गये. कैसे? यह बात जानना-समझना जरूरी है. दरअसल, उन्हें हमेशा इस बात का तीव्र एहसास होता रहता है कि वे आदिवासियों से श्रेष्ठ हैं. आदिवासियों को जीने की कला, खेती बाड़ी तो उन्होंने ही करनी सिखायी. यह गुमान अभी भी कुर्मी/कुड़मी नेताओं को है. यह बात समझ से पड़े है कि जब वे आदिवासियों से खुद को श्रेष्ठ समझते हैं, फिर दुबारा आदिवासी बनना क्यों चाहते हैं?

एक वह दौर था जब गंगा किनारे बसे यूपी और बिहार के कुर्मियों ने आल इंडिया कुर्मी महासभा का गठन किया और खुद को बिहार से दूर रहने वाले मराठों के रिश्ता कामय किया. उस वक्त झारखंड के कुड़मियों ने इस बात का विरोध किया था और बिहार के कुर्मियों से अपनी पृथकता बनाये रखने के लिए गोसायियन आंदोलन छोटानागपुर में चलाया. लेकिन यह आंदोलन बहुत दिनों तक नहीं चला. आदिवासियों से खुद को श्रेष्ठ समझने की भावना उन्हें भी मराठों के करीब ले गयी और उन्होंने भी शिवाजी समाज का गठन किया.

लेकिन झारखंड आंदोलन के दौरान उन्होंने एकबार फिर मांग की कि उन्हें आदिवासी माना जाये. 1970 के जनवरी माह में छोटानागपुर कुड़मी/कुर्मी पंच एसोसियेशन की तरफ से संसदीय सचिव को एक प्रतिवेदन देकर खुद को सिड्यूल ट्राईब में रखने की मांग की. झारखंड अलग राज्य बनने के बाद यह मांग फिर तीव्र हुई है.

शायद इसकी वजह यह रही हो कि समतल क्षेत्र के कर्मी झारखंड के कुड़मियों से अपनी सामाजिक दूरी बनाये रखते थे. वे झारखंड के कुड़मियों से वैवाहिक संबंध बनाने में परहेज करते थे. बेटी तो वे दे सकते हैं, लेकिन यहां की बेटियों को बहु बनाने के लिए तैयार नहीं. उनके खान पान में भी अंतर रहा है. वे मुर्गी खाते हैं, वाईट ऐंट्स भी. उनकी स्त्रियां इरगुनाथ नाम की मूर्ति की पूजा कर गर्भवति होने की उम्मीद करती हैं. विवाह के समय लोहे की कनवाली पहनती हैं. हांलांकि समय के साथ बहुत कुछ बदल भी रहा है.

गोसुर, बकासुर, खरवार, गौर जैसे गोत्रों के नाम इस बात के संकेत देते हैं कि आदिवासी समुदाय असुर का उन पर प्रभाव है. मुंडा और संथालों का भी उन पर प्रभाव है. वीरहोर, हंसदा, टेटे उनके भी टाईटल होते हैं. कुड़मी और भूमिज में भी सामाजिक अंतर है, लेकिन दोनों एक दूसरे को स्वीकार करते हैं. भूमिजों को सहिया/मीता के रूप में कुड़मी स्वीकार करते हैं.

रांची, हजारीबाग, णनबाद, संथाल परगना, पुरुलिया, मिदनापुर, बांकुड़ा, सुंदरगढ़, मयूरभंज, क्योंझर आदि इलाकों में उनकी सघनता है. निर्मल सेनगुप्ता की पुस्तक -फोर्थ वल्र्ड डायनामिक्स के लेख ‘हिस्ट्री एंड कल्चर बेसिस आॅफ झारखंड नैशनलीटीज ’ में दावा किया गया है कि कुड़मी संथालों, मुंडाओं से से पहले इस क्षेत्र में आये.

इस लेख में इतिहासकार शरतचंद्र राय के हवाले से कहा गया कि इस क्षेत्र में पहले मुंडा राज की स्थापना 64 एडी में हुई, लेकिन वीम कडफिसिस 1- 200 बीसी- के जमाने के दो सोने के सिक्के का लोहरदगा से पाया जाना और खूंटी के निकट बेलवाडाग से हुविस्का काल का तीन सोने का सिक्का पाया जाना इस बात का सूचक है कि मुंडाओं के इस क्षेत्र में बसने के पूर्व यह क्षेत्र आबाद था. यह भी गौरतलब है कि इस क्षेत्र की किसी नदी- शंख, कोयल, दामोदर, सुवर्णरेखा का नाम मुंडारी भाषा का नहीं.

इतिहासकारों का दावा है कि वे कुर्मी थे जो मध्य भारत से इस क्षेत्र में आये थे. और सदियों से आदिवासियों के साथ रहने की वजह से उनका रंगरूप, उनकी जीवन शैली, खान-पान, संस्कृति आदि थोड़ी बदल गयी और झारखंड में हम उन्हें कुड़मियों के रूप में चिन्हित करते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि वे पुरातन काल से इस क्षेत्र में बसे हुए हैं. आदिवासियों से श्रेष्ठ होने की भावना ही उन्हें आदिवासीयत से दूर ले गयी. और यह भावना उनमें अभी भी भरी हुई है. फिर भी वे आदिवासी कहे जाने के लिए संघर्षरत हैं.